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प्रातिथ्य
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मित्र का नौकर सब का नौकर है, और महाराज पर भी सभी हुक्म चढ़ा देते हैं-मित्र इससे बड़े प्रसन्न हैं। वास्तव में वे बहुत ही भले आदमी हैं। पन्द्रहवें रोज पिक-निक पार्टी की जाती है, और उसका भार भी बिना कहे-सुने वही उठाते हैं, मानो उन्हें मालूम भी नहीं होता। यह पिक-निक की सूझ भी उन्होंने ही सुभाई है, नहीं तो यहाँ किसको पड़ी है और किसके पास पैसा है।
मित्र इस तरह खूब प्रिय और खूब परिचित हो गये हैं। मेरी उनकी तो बात ही क्या, सभी मानो उनसे घनिष्ठ हो गये हैं और थोड़ा उनका भार और आभार उठाने को तैयार रहते हैं।
इसी तरह साल बीतते रहे । छुट्टी में दिल्ली आते तो वहाँ भी साथ रहते, कालेज में तो रहते ही। मुझे उनसे और तरह की विन-माँगी कृपा मिलती ही थी, उनको भी मुझ से माँगी हुई पढ़ाई की मदद मिल जाती थी। सारांश, हम बहुत अभिन्न हो गये।
:२: आखिर आँधी भा गई। कालेज टूट-टूटकर गिरने लगे और लड़के भागने लगे। तब मानो यह बड़ा-सा हिन्दुस्तान करवट ले रहा था, करवट के साथ करवट नहीं लोगे, तो मानो कहीं के न रहोगे। गाँधी को उस आँधी की चपेट में मैं भी आया, मेरा दिमारा मानो उड़ने लगा। मानो अभी आसमान-धरती एक कर दूंगा और भारत-माता की परतन्त्रता-बेड़ियों को एक चोट में कटकटकर काट दूंगा । और इस तरह मैं अमर हो जाऊँगा।
कुछ आँधी की झोंक में, कुछ दिल दिमाग की झोंक में, कुछ समझकर और कुछ शर्माशर्मी में मैं तो कालेज छोड़ बैठा, मित्र वहीं रहे।
अब मेरे लिए दो ही काम थे-देश-सेवा और भटकन । इस