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________________ १०४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ] देश- सेवा में कई बाँस लगाये, पर नाप नहीं सका कि देश कितने sa आगे बढ़ा । आखिर जब देश वहीं का वहीं दीखा - बल्कि चाहे कुछ पिछड़ा हुआ - और सेवा का कुछ श्रन्त ही नज़र नहीं श्राया और न महत्त्व, कुछ थकान होने लगी और मन और कुछ चाहने लगा। लोग भी मेरी देश सेवा की कम प्रशंसा करने लगे और उससे तङ्ग-से दीखने लगे, और पिता की चिट्ठियों-पर-चिट्ठियाँ आई और स्त्री की गड़बड़ खबरें, और घर की बेपैसा हालतक्षुब्ध मन से देश सेवा छोड़ देनी पड़ी। सोचा था, कुछ करके दिखाऊँगा और पुजूँगा, सो कुछ करके तो दिखा न सका, उल्टे पीठ दिखाकर भागना पड़ गया। घर पर आकर चुपचाप बैठ गया । पिता बीमार हैं, स्त्री भी ठीक नहीं है, और बच्चे यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ और सब जगह से फिर-फिरकर चौके में घूम रहे हैं। चौके में कुछ बना नहीं, कौन बनाये और कैसे बनाये ? I पिता - स्त्री की इस बीमारी और बच्चों के घूमने का परिणाम यह हुआ कि मैं एक मिडिल स्कूल में मास्टर हो गया । इस दवा ने काम भी खूब किया । क्योंकि पिता चंगे हो गये, स्त्री भी ठीक रहने लगी, रोटी ठीक बनने और बच्चों को मिलने लगी। पैंतीस रुपये की करामात को अब देखा। हजारों रुपए इकट्ठ े किए हैं, और दे दिए हैं, रूखी रोटी भी खाई है और पैदल भी चला हूँ, पर पैसे का पूरा मूल्य और पूरी करामात अबसे पहले समझ में नहीं आई | देश सेवा में ऐसी करामात नहीं नजर आई। उसे पैंतीस रुपये में छोड़ देने के लिए मैं पछताता नहीं हूँ । अपनी देश सेवा में मैं अभी तक एक भी रोगी नहीं अच्छा कर पाया हूँ, एक को भी खुश नहीं कर पाया हूँ, एक को भी नहीं अपना बना पाया हूँ, यहाँ तक कि अपने को भी कुछ नहीं बना पाया हूँ । लेक्चर से यह कुछ भी काम नहीं होता । इन पैंतीस ने अच्छा भी किया, खुश भी किया, लोग भी कुछ अपने बनते जा रहे हैं, और अपने को
SR No.010359
Book TitleJainendra Kahani 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurvodaya Prakashan
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1953
Total Pages244
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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