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जैनधर्म का प्राण
बढाकर क्रमश पूर्णता की दिशा में आगे बढ़ता है। यही बात मनुष्यजाति के बारे मे भी है। मनुष्यजाति मे भी बाल्य आदि क्रमिक अवस्थाएँ अपेक्षाविशेष से होती ही है। उसका जीवन व्यक्ति के जीवन की अपेक्षा अत्यन्त लम्बा और विशाल होने से उसकी बाल्य आदि अवस्थाओ का समय भी उतना ही लम्बा हो यह स्वाभाविक है। मनुष्यजाति ने जब प्रकृति की गोद मे जन्म लिया और पहले-पहल बाह्य विश्व की ओर आँखे खोलकर देखा, तब उसके सामने अद्भुत एव चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएँ उपस्थित हुई। एक ओर सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामण्डल तया दूसरी ओर समुद्र, पर्वत, विशाल नदीप्रवाह और मेवगर्जना एव बिजली की चकाचौध ने उस का ध्यान आकर्षित किया। मानव का मानस इन सब स्थूल पदार्थो के सूक्ष्म चिन्तन मे प्रवृत्त हुआ और उनके बारे मे अनेक प्रश्न उसके मन मे पैदा होने लगे। मानव-मानस मे जैसे बाह्य विश्व के गूढ एव अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय मे तथा उसके सामान्य नियमो के विषय मे विविध प्रश्न उत्पन्न हुए, वैसे आन्तरिक विश्व के गूढ एव अतिसूक्ष्म स्वरूप के बारे मे भी उसके मन मे विविध प्रश्न पैदा हुर । इन प्रश्नो की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का प्रथम सोपान है। ये प्रश्न चाहे जितने हो और कालक्रम से उनमे से दूसरे मुख्य एव उपप्रश्न भी चाहे जितने पैदा हुए हो, परन्तु सामान्य रूप से ये सब प्रश्न सक्षेप मे निम्न प्रकार से दिखलाये जा सकते है।
तात्त्विक प्रश्न सतत परिवर्तनशील प्रतीत होनेवाला यह बाह्य विश्व कब उत्पन्न हुआ होगा ? किस मे से उत्पन्न हुआ होगा? अपने आप उत्पन्न हुआ होगा या फिर किसी ने उत्पन्न किया होगा? और उत्पन्न न हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसा ही था और ऐसा ही रहेगा? यदि उसके कारण हो तो वे स्वय परिवर्तन-रहित शाश्वत ही होने चाहिए या परिवर्तनशील होने चाहिए ? और वे कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के ही होगे या फिर समग्र बाह्य विश्व का कारण केवल एकरूप ही होगा? इस विश्व की व्यवस्थित एव नियमबद्ध जो सचालना और रचना दिखाई देती है वह बुद्धिपूर्वक होनी चाहिए अथवा यत्रवत् अनादिसिद्ध होनी चाहिए ? यदि बुद्धिपूर्वक विश्वव्यवस्था हो तो वह