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जैन तत्त्वज्ञान
विश्व के बाह्य एव आन्तरिक स्वरूप के विषय मे तथा सामान्य एव व्यापक नियमो के सम्बन्ध मे तात्त्विक दृष्टि से विचारणा ही तत्त्वज्ञान है। ऐसा नही है कि ऐसी विचारणा किसी एक देश, किसी एक जाति या किमी एक प्रजा मे ही पैदा होती हो और क्रमश विकास पाती हो, परन्तु इस प्रकार की विचारणा मनुष्यत्व का विशिष्ट स्वरूप होने से उसका जल्दी या देर से प्रत्येक देश में बसनेवाली प्रत्येक जाति की मानवप्रजा मे कमोबेश अश मे उद्भव होता है। ऐसी विचारणा भिन्न-भिन्न प्रजाओ के पारस्परिक ससर्ग के कारण, और कभी-कभी तो सर्वथा स्वतत्र रूप से भी, विशेष विकसित होती है तथा सामान्य भूमिका मे से गुजरकर वह अनेक रूपो मे प्रस्फुटित होती है ।
__ प्रारम्भ से लेकर आज तक भूमण्डल पर मानवजाति ने जो तात्त्विक विचारणाएँ की है वे सभी आज विद्यमान नही है तथा उन सब विचारणाओ का ऋमिक इतिहास भी पूर्ण रूप से हमारे समक्ष नही है, फिर भी इस समय जो कुछ सामग्री हमारे सामने उपस्थित है और उस विषय मे हम जो कुछ थोडा-बहुत जानते है, उस पर से इतना तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि तत्त्वचिन्तन की भिन्न-भिन्न एव परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली चाहे जितनी धाराएँ क्यो न हो, परन्तु उन सभी विचारधाराओ का सामान्य स्वरूप एक है और वह है विश्व के बाह्य एव आन्तरिक स्वरूप के सामान्य तथा व्यापक नियमो के रहस्य की शोध करना।
तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का मूल कोई एक मानव-व्यक्ति प्रारम्भ से ही पूर्ण नही होता, वह बाल्य आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाओ मे से गुजरकर और इस प्रकार अपने अनुभवो को