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जैनधर्म का प्राण नए उपयोगी स्वरूप मे गाधीजी के द्वारा पुनः अपना संस्करण कर रही है, तो निवृत्तिलक्षी जैन-सस्कृति को भी कल्याणाभिमुख आवश्यक प्रवृत्तियों का महारा लेकर ही आज की बदली हुई परिस्थिति मे जीना होगा । जैनसस्कृति मे तत्त्वज्ञान और आचार के जो मूल नियम है और वह जिन आदर्शों को आजतक पूजी मानती आई है उनके आधार पर वह प्रवृत्ति का ऐसा मगलमय योग साध सकती है जो सबके लिए क्षेमकर हो।।
जैन-परपरा मे प्रथम स्थान है त्यागियो का, दूसरा स्थान है गृहस्थों का। त्यागियो को जो पॉच महाव्रत धारण करने की आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणो मे प्रवृत्ति करने की या सद्गुण-पोषक प्रवृत्ति के लिए बल पैदा करने की प्राथमिक शर्त मात्र है। हिंसा, असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोपो से बिना बचे सद्गुणो मे प्रवृत्ति हो ही नही सकती और सद्गुणपोषक प्रवृत्ति को बिना जीवन मे स्थान दिये हिसा आदि से बचे रहना भी सर्वथा असम्भव है। जो व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतो को धारण करने की शक्ति नही रखता उसके लिए जैन-परपरा मे अणुव्रतो की सृष्टि करके धीरे-धीरे निवृत्ति की ओर आगे बढ़ने का मार्ग भी रखा है। ऐसे गृहस्थों के लिए हिसा आदि दोपो से अशत बचने का विधान किया गया है। उसका मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषो से बचने का अभ्यास करे, पर साथ ही यह आदेश है कि जिस-जिस दोष को वे दूर करे उस-उस दोष के विरोधी सद्गुणो को जीवन मे स्थान देते जाएँ । हिंसा को दूर करना हो तो प्रेम और आत्मौपम्य के सद्गुण को जीवन मे व्यक्त करना होगा। सत्य बिना बोले और सत्य बोलने का बल बिना पाए असत्य से निवृत्ति कैसे होगी? परिग्रह और लोभ से बचना हो तो सन्तोष और त्याग जैसी गुणपोषक प्रवत्तियों मे अपने-आपको खपाना ही होगा।
सस्कृतिमात्र का सकेत लोभ और मोह को घटाने व निर्मूल करने का है, न कि प्रवृत्ति को निर्मूल करने का। वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो आसक्ति के विना कभी सभव ही नही, जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह आदि। जो प्रवृत्तियाँ समाज का धारण, पोषण, विकसन करनेवाली है वे आसक्तिपूर्वक और आसक्ति के सिवाय भी सभव है। अतएव सस्कृति आसक्ति के त्यागमात्र का सकेत करती है। (द० औ० चि० ख० २, पृ० १३२-१४२)