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जैनधर्म का प्राण
किस की बुद्धि की अपेक्षा रखनी है ? क्या वह बुद्धिमान तत्त्व स्वय तटस्थ रहकर विश्व का नियमन करता है या वह स्वय विश्व के रूप में परिणत होता है अथवा दिखता है ? ____ इसी प्रकार आन्तरिक विश्व के बारे मे भी प्रश्न हुए कि जो इस बाह्य विश्व का उपभोग करता है या जो बाह्य विश्व के बारे मे विचार करता है वह तत्त्व क्या है ? क्या वह अह रूप से प्रतिभासित तत्त्व बाह्य विश्व के जैसी ही प्रकृति का है अथवा किसी भिन्न स्वभाव का है ? यह आन्तरिक तत्त्व अनादि है अथवा वह भी कभी किसी अन्य कारण मे से उत्पन्न हुआ है ? और, अह रूप से भासित अनेक तत्त्व वस्तुत भिन्न ही है अथवा किसी एक मूल तत्त्व की निर्मिति है ? ये सभी सजीव तत्त्व वस्तुत भिन्न हो तो वे परिवर्तनशील है या मात्र कूटस्थ है ? इन तत्त्वो का कभी अन्त होगा या फिर काल की दृष्टि से ये अन्तरहित ही है ? इसी प्रकार ये सब देहमर्यादित तत्त्व वास्तव में देश की दृष्टि से व्यापक है या परिमित है ?
ये और इनके जैसे दूसरे अनेक प्रश्न तत्त्वचिन्तन के प्रदेश मे उपस्थित हुए। इन सबका अथवा इन मे से कतिपय का उत्तर हम भिन्न-भिन्न प्रजाओ के तात्त्विक चिन्तन के इतिहास मे अनेक प्रकार से देखते हैं । यूनानी विचारको ने अतिप्राचीन समय से इन प्रश्नो की छानबीन शुरू की। उनके चिन्तन का अनेक रूपो में विकास हुआ, जिसका पाश्चात्य तत्त्वज्ञान मे खास महत्त्व का स्थान है । आर्यावर्त के विचारको ने तो यूनानी चिन्तको के हजारो वर्ष पहले से इन प्रश्नो के उत्तर पाने के विविध प्रयत्न किये, जिनका इतिहास हमारे समक्ष स्पष्ट है।
उत्तरों का संक्षिप्त वर्गीकरण आर्य विचारको द्वारा एक-एक प्रश्न के बारे मे दिये गये भिन्न-भिन्न उत्तर और उनके बारे में भी मतभेद की शाखाएँ अपार है, परन्तु सामान्य रूप से सक्षेप मे उन उत्तरो का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है .
एक विचारप्रवाह ऐसा शुरू हुआ कि वह बाह्य विश्व को जन्य मानता, परन्तु वह विश्व किसी कारण मे से सर्वथा नवीन-पहले न हो वैसीउत्पत्ति का इन्कार करता और कहता कि जैसे दूध मे मक्खन छिपा रहता