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जैनधर्म का प्राण
अध्ययन बहुत रसप्रद एव उपयोगी है, जिसका वर्णन यहाँ सभव नही । जिज्ञासु अन्यत्र प्रसिद्ध लेखो से जान सकता है। ___ मै यहाँ उन चौदह गुणस्थानो का वर्णन न करके सक्षेप मे तीन भूमिकाओं का ही परिचय दिये देता है, जिनमे गुणस्थानो का समावेश हो जाता है। पहली भूमिका है बहिरात्म, जिसमे आत्मज्ञान या विवेकख्याति का उदय ही नही होता । दूसरी भूमिका अन्तरात्म है, जिसमे आत्मज्ञान का उदय तो होता है पर राग-द्वेप आदि क्लेश मद होकर भी अपना प्रभाव दिखलाये रहते है। तीसरी भूमिका है परमात्म, इसमे राग-द्वेष का पूर्ण उच्छेद होकर वीतरागत्व प्रकट होता है।
लोकविद्या लोकविद्या मे लोक के स्वरूप का वर्णन है। जीव-चेतन और अजीवअचेतन या जड इन दो तत्त्वो का सहचारही लोक है। चेतन-अचेतन दोनो तत्त्व न तो किसीके द्वारा कभी पैदा हुए है और न कभी नाश पाते है, फिर भी स्वभाव से परिणामान्तर पाते रहते है । ससार-काल मे चेतन के ऊपर अधिक प्रभाव डालनेवाला द्रव्य एकमात्र जड-परमाणुपुज पुद्गल है, जो नानारूप से चेतन के सबध मे आता है और उसकी शक्तियो को मर्यादित भी करता है । चेतन तत्त्व की साहजिक और मौलिक शक्तियाँ ऐसी है जो योग्य दिशा पाकर कभी-न-कभी उन जड द्रव्यो के प्रभाव से उसे मुक्त भी कर देती है । जड़ और चेतन के पारस्परिक प्रभाव का क्षेत्र ही लोक है और उस प्रभाव से छुटकारा पाना ही लोकान्त है। जैन-परपरा की लोकक्षेत्रविषयक कल्पना साख्य-योग, पुराण और बौद्ध आदि परपराओ की कल्पना से अनेक अशो मे मिलती-जुलती है।
जैन-परपरा न्यायवैशेषिक की तरह परमाणुवादी है, साख्ययोग की तरह प्रकृतिवादी नही है, तथापि जैन-परपरासम्मत परमाणु का स्वरूप सांख्य-परपरासम्मत प्रकृति के स्वरूप के साथ जैसा मिलता है वैसा न्याय
१. भारतीय दर्शनोमां आध्यात्मिक विकासक्रम'—पुरातत्त्व १, पृ० १४९।