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जैनधर्म का प्राण
- वैशेषिकसम्मत परमाणुस्वरूप के साथ नही मिलता, क्योकि जैनसम्मत
परमाणु साख्यसम्मत प्रकृति की तरह परिणामी है, न्यायवैशेषिकसम्मत परमाणु की तरह कूटस्थ नही है। इसीलिए जैसे एक ही साख्यसमत प्रकृति पृथ्वी, जल, तेज, वायु आदि अनेक भौतिक सृष्टियो का उपादान बनती है वैसे ही जैनसम्मत एक ही परमाणु पृथ्वी, जल, तेज आदि नानारूप में परिणत होता है। जैन-परपरा न्यायवैशेपिक की तरह यह नही मानती कि पार्थिव, जलीय आदि भौतिक परमाणु मूल मे ही सदा भिन्नजातीय है । इसके सिवाय और भी एक अन्तर ध्यान देने योग्य है । वह यह कि जैनसम्मत परमाणु वैशेषिकसम्मत परमाणु की अपेक्षा इतना अधिक सूक्ष्म है कि अन्त मे वह साख्यसम्मत प्रकृति जैसा ही अव्यक्त बन जाता है । जैन-परपरा का अनत परमाणुवाद प्राचीन साख्यसम्मत पुरुषबहुत्वानुरूप प्रकृतिबहुत्ववाद से दूर नहीं है।
जैनमत और ईश्वर जैन-परंपरा साख्य-योग-मीमासक आदि परपराओं की तरह लोक को प्रवाहरूप से अनादि और अनत ही मानती है। यह पौराणिक या वैशेषिक मत की तरह उसका सृष्टिसहार नही मानती। अतएव जैन-परपरा मे कर्तासहर्ता रूप से ईश्वर जैसी स्वतत्र व्यक्ति का कोई स्थान ही नही है । जैन सिद्धात कहता है कि प्रत्येक जीव अपनी-अपनी सृष्टि का आप ही कर्ता है। उसके अनुसार तात्त्विक दृष्टि से प्रत्येक जीव मे ईश्वरभाव है, जो मुक्ति के समय प्रकट होता है। जिसका ईश्वरभाव प्रकट हुआ है वही साधारण लोगो के लिए उपास्य बनता है । योगशास्त्रसमत ईश्वर भी मात्र उपास्य है, कर्ता-सहर्ता नही, पर जैन और योगशास्त्र की कल्पना मे अन्तर है। वह यह कि योगशास्त्रसम्मत ईश्वर सदा मुक्त होने के कारण अन्य पुरुषों से भिन्न कोटि का है, जबकि जैनशास्त्रसमत ईश्वर वैसा नहीं है। जैन
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१. पड्दर्शनसमुच्चय गुणरत्नटीका (पृ०९९)-"मौलिकसाख्या हि आत्मानमात्मान प्रति पृथक् प्रधान वदन्ति । उत्तरे तु सांख्याः सर्वात्मस्वपि एकं नित्य प्रधानमिति प्रपन्ना.।"