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जैनधर्म का प्राण
चितको ने लगभग एक-सा ही दिया है । साख्य-योग हो या वेदान्त, न्यायवैशेषिक हो या बौद्ध इन सभी दर्शनो की तरह जैन-दर्शन का भी यही मन्तव्य है कि कर्म और आत्माका सम्बध अनादि है क्योकि उस सबध का आदिक्षण सर्वथा ज्ञानसीमा के बाहर है। सभीने यह माना है कि आत्मा के साथ कर्म, अविद्या या माया का सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि है, फिर भी व्यक्ति रूप से वह सबध सादि है, क्योकि हम सबका ऐसा अनुभव है कि अज्ञान और राग-द्वेष से ही कर्मवासना की उत्पत्ति जीवन मे होती रहती है । सर्वथा कर्म छूट जाने पर जो आत्मा का पूर्ण शुद्धरूप प्रकट होता है उसमे पुन कर्म या वासना उत्पन्न क्यो नही होती इसका खुलासा तर्कवादी आध्यात्मिक चितको ने यो किया है कि आत्मा स्वभावत शुद्धि-पक्षपाती है । शुद्धि के द्वारा चेतना आदि स्वाभाविक गुणो का पूर्ण विकास होने के बाद अज्ञान या राग-द्वेष जैसे दोष जड़ से ही उच्छिन्न हो जाते है, अर्थात् वे प्रयत्नपूर्वक शुद्धि को प्राप्त ऐसे आत्मतत्त्व मे अपना स्थान पाने के लिए सर्वथा निर्बल हो जाते है। ___चारित्र का कार्य जीवनगत वैषम्य के कारणो को दूर करना है, जो जैन-परिभाषा मे 'सवर' कहलाता है । वैपम्य के मूल कारण अज्ञान का निवारण आत्मा की सम्यक् प्रतीति से होता है और राग-द्वेष जैसे क्लेगो का निवारण माध्यस्थ्य की सिद्धि से। इसलिए आन्तर चारित्र मे दो ही बाते आती है : (१) आत्म-ज्ञान-विवेक-ख्याति, (२) माध्यस्थ्य या राग-द्वेष आदि क्लेशो का जय । ध्यान, व्रत, नियम, तप आदि जो-जो उपाय आन्तर चारित्र के पोषक होते है वे ही बाह्य चारित्र रूप से साधक के लिए उपादेय माने गए है। ___आध्यात्मिक जीवन की उत्क्रान्ति आन्तर चारित्र के विकासक्रम पर अवलबित है। इस विकासक्रम का गुणस्थान रूप से जैन-परम्परा मे अत्यत विशद और विस्तृत वर्णन है। आध्यात्मिक उत्क्रान्तिक्रम के जिज्ञासुओ के लिए योगशास्त्रप्रसिद्ध मधुमती आदि भूमिकाओ का, बौद्धशास्त्रप्रसिद्ध सोतापन्न आदि भूमिकाओ का, योगवासिष्ठप्रसिद्ध अज्ञान और ज्ञानभूमिकाओ का, आजीवक-परपराप्रसिद्ध मद-भूमि आदि भूमिकाओ का और जैन-परपरा प्रसिद्ध गुणस्थानो का तथा योगदृष्टियों का तुलनात्मक