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जैनधर्म का प्राण
अन्त करण के बधमोक्ष को ही उपचार से पुरुष के मान लेती है । (३) न्यायवैशेषिक परपरा के अनुसार आत्मा अनेक है, वह साख्य-योग की तरह कूटस्थ और व्यापक माना गया है, फिर भी वह जैन- परभ्परा की तरह वास्तविक रूप से कर्त्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त भी माना गया है । ( ४ ) अद्वैतवा वेदान्त के अनुसार आत्मा वास्तव मे नाना नही पर एक ही है । वह साख्य-योग की तरह कूटस्थ और व्यापक है, अतएव न तो वास्तव मे बद्ध है और न मुक्त | उसमे अन्त करण का बधमोक्ष ही उपचार से माना गया है । (५) बौद्धमत के अनुसार आत्मा या चित्त नाना वही कर्त्ता, भोक्ता, TE और निर्वाण का आश्रय है । वह न तो कूटस्थ है, न व्यापक, वह केवल ज्ञानक्षणपरम्परा रूप है, जो हृदय, इन्द्रिय जैसे अनेक केन्द्रो क्रमश. निमित्तानुसार उत्पन्न व नष्ट होता रहता है ।
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एक साथ या
ऊपर से सक्षिप्त वर्णन से यह स्पष्टतया सूचित होता है कि जैन-परम्परासमत आत्मस्वरूप बन्धमोक्ष के तत्त्वचिंतको की कल्पना का अनुभवमूलक पुराना रूप है । साख्य-योगसमत आत्मस्वरूप उन तत्त्वचितको की कल्पना की दूसरी भूमिका है | अद्वैतवादसम्मत आत्मस्वरूप साख्य-योग की जीवबहुविषयक कल्पना का एक स्वरूप मे परिमार्जनमात्र है, जब कि न्याय - वैशेषिकसम्मत आत्मस्वरूप जैन और साख्ययोग की कल्पना का मिश्रणमात्र है । बौद्धसम्मत आत्मस्वरूप जैन कल्पना का ही तर्कशोधित रूप है ।
एकत्वरूप चारित्रविद्या
आत्मा और कर्म के स्वरूप को जानने के बाद ही यह जाना जा सकता है कि आध्यात्मिक उत्क्रान्ति मे चारित्र का क्या स्थान है । मोक्षतत्त्वचितकों के अनुसार चारित्र का उद्देश्य आत्मा को कर्म से मुक्त करना ही है । चारित्र के द्वारा कर्म से मुक्ति मान लेने पर भी यह प्रश्न रहता ही है कि स्वभाव
शुद्ध ऐसे आत्मा के साथ पहले-पहल कर्म का सम्बन्ध कब और क्यो हुआ या ऐसा सम्बन्ध किसने किया ? इसी तरह यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वभाव से शुद्ध ऐसे आत्मतत्त्व के साथ यदि किसी-न-किसी तरह से कर्म का संबध हुआ माना जाए तो चारित्र के द्वारा मुक्ति सिद्ध होने के बाद भी फिर कर्मसबध क्यो नही होगा ? इन दो प्रश्नों का उत्तर आध्यात्मिक सभी