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जैनधर्म का प्राण
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मूल कल्पना
सूक्ष्मता से देखनेवाला जान सकता है कि वस्तुत. ऐसा नही है । सांख्य योग, वेदान्त आदि परपराओ मे जन्मजन्मान्तरगामी सूक्ष्म या लिंग शरीर का वर्णन है । यह शरीर अन्त करण, अभिमान, मन आदि प्राकृत या मायिक तत्त्वो का बना हुआ माना गया है, जो वास्तव मे जैन - परम्परासमत भौतिक कार्मण शरीर के ही स्थान में है । सूक्ष्म या कार्मण शरीर की एक ही है । अन्तर है तो उसके वर्णन प्रकार मे और न्यूनाधिक विस्तार में एवं वर्गीकरण मे, जो हजारो वर्ष से जुदा-जुदा विचार - चितन करनेवाली परम्पराओ मे होना स्वाभाविक है । इस तरह हम देखते है कि आत्मवादी सब परपराओ मे पुनर्जन्म के कारणरूप से कर्मतत्त्व का स्वीकार है और जन्मजन्मान्तरगामी भौतिक शरीररूप द्रव्यकर्म का भी स्वीकार है । न्यायवैशैषिक परम्परा, जिसमे ऐसे सूक्ष्म शरीर का कोई खास स्वीकार नही है, उसने भी जन्मजन्मान्तरगामी अणुरूप मन को स्वीकार करके द्रव्यकर्म के विचार को अपनाया है ।
पुनर्जन्म और कर्म की मान्यता के बाद जब मोक्ष की कल्पना भी तत्त्वचिंतन मे स्थिर हुई तबसे अभीतक की बन्ध-मोक्षवादी भारतीय तत्त्वचितको की आत्मस्वरूप-विषयक मान्यताएँ कैसी-कैसी है और उनमें विकासक्रम की दृष्टि से जैन मन्तव्य के स्वरूप का क्या स्थान है, इसे समझने के लिए सक्षेप मे वन्धमोक्षवादी मुख्य-मुख्य सभी परम्पराओ के मन्तव्यो को नीचे दिया जाता है । (१) जैन- परम्परा के अनुसार आत्मा प्रत्येक शरीर मे जुदा-जुदा है । वह स्वय शुभाशुभ कर्म का कर्ता और कर्म के फल- -सुखदुख आदि का भोक्ता है । वह जन्मान्तर के समय स्थानान्तर को जाता है और स्थूल देह के अनुसार सकोच - विस्तार धारण करता है । यही मुक्ति पाता है और मुक्तिकाल मे सासारिक सुख-दुख, ज्ञान-अज्ञान आदि शुभाशुभ कर्म आदि भावो से सर्वथा छूट जाता है । (२) साख्य-योग परम्परा के अनुसार आत्मा भिन्न भिन्न है, पर वह कूटस्थ एव व्यापक होने से न कर्म का कर्ता, भोक्ता, जन्मान्तरगामी, गतिशील है और न तो मुक्तिगामी ही है । उस परम्परा के अनुसार तो प्राकृत बुद्धि या अन्त करण ही कर्म का कर्ता, भोक्ता, जन्मान्तरगामी, सकोचविस्तारशील, ज्ञान-अज्ञान आदि भावों का आश्रय और मुक्ति-काल में उन भावों से रहित है । साख्य-योग परपरा