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जैनधर्म का प्राण अभेद का वास्तविक सवेदन होना ही अहिंसा की भावना का उद्गम है ।
कर्मविद्या और बंध-मोक्ष जब तत्त्वत सब जीवात्मा समान है तो फिर उनमे परस्पर वैषम्य क्यों, तथा एक ही जीवात्मा मे काल-भेद से वैषम्य क्यो ? इस प्रश्न के उत्तर में से ही कर्मविद्या का जन्म हुआ है। जैसा कर्म वैसी अवस्था यह मान्यता वैषम्य का स्पष्टीकरण तो कर देती है, पर साथ-ही-साथ यह भी कहती है कि अच्छा या बुरा कर्म करने एव न करने मे जीव ही स्वतत्र है, जैसा वह चाहे वैसा सत् या असत् पुरुषार्थ कर सकता है और वही अपने वर्तमान और भावी का निर्माता है। कर्मवाद कहता है कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर और भविष्य का निर्माण वर्तमान के आधार पर होता है। तीनों काल की पारस्परिक सगति कर्मवाद पर ही अवलंबित है। यही पुनर्जन्म के विचार का आधार है।
वस्तुत. अज्ञान और राग-द्वेष ही कर्म है। अपने पराये की वास्तविक प्रतीति न होना अज्ञान या जैन-परम्परा के अनुसार दर्शन मोह है। इसीको साख्य, बौद्ध आदि अन्य परम्पराओ मे अविद्या कहा है । अज्ञान-जनित इष्टानिष्ट की कल्पनाओ के कारण जो-जो वृत्तियाँ या जो-जो विकार पैदा होते है वे ही सक्षेप मे राग-द्वेष कहे गए है । यद्यपि राग-द्वेष ही हिसा के प्रेरक है, पर वस्तुतः सबकी जड़ अज्ञान-दर्शन मोह या अविद्या ही है, इसलिए हिंसा की असली जड़ अज्ञान ही है । इस विषय मे आत्मवादी सब परपराएं एकमत है।
ऊपर जो कर्म का स्वरूप बतलाया है वह जैन-परिभाषा मे भावकर्म है और वह आत्मगत सस्कारविशेष है। यह भावकर्म आत्मा के इर्दगिर्द सदा वर्तमान ऐसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भौतिक परमाणुओ को आकृष्ट करता है
और उसे विशिष्टरूप अर्पित करता है। विशिष्टरूप से प्राप्त यह भौतिक परमाणुपुंज ही द्रव्यकर्म या कार्मण शरीर कहलाता है, जो जन्मान्तर मे जीव के साथ जाता है और स्थूल शरीर के निर्माण की भूमिका बनता है। ऊपर-ऊपर से देखने पर मालूम होता है कि द्रव्यकर्मका विचार जैन-परम्परा की कर्मविद्या मे है, और अन्य परम्परा की कर्मविद्या मे वह नही है, परन्तु