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जैनधर्म का प्राण
२०९ और दूसरी ओर सम्प्रदायो की ज्ञान-विषयक स्पर्धा-इन दो कारणो से मुखपाठ के रूप मे चली आनेवाली समस्त पूर्वकालीन ज्ञानसस्था मे परिवर्तन हो गया और वह बडे-बडे भण्डारो के रूप में दृष्टिगोचर होने लगी ।
प्रत्येक गाव और नगर के सघ को ऐसा लगता कि हमारे यहाँ ज्ञानभंडार होना ही चाहिए। प्रत्येक त्यागी साधु भी ज्ञानभण्डार की रक्षा और वृद्धि मे ही धर्म की रक्षा मानने लगा। इसके परिणामस्वरूप समग्र देश में एक कोने से दूसरे कोने तक जन ज्ञानसस्था भण्डारो के रूप मे व्यवस्थित हो गई । भण्डार पुस्तकों से उमड़ने लगे। पुस्तको में भी विविध विषयों के तथा विविध सम्प्रदायो के ज्ञान का सग्रह होने लगा। संघ के भण्डार, साधुओ के भण्डार और व्यक्तिगत मालिकी के भी भण्डार-इस प्रकार भगवान के शासन मे भण्डार, भण्डार और भण्डार ही हो गये। इसके साथ ही बड़ा लेखकवर्ग खडा हुआ, लेखनकला विकसित हुई और अभ्यासीवर्ग भी खूब बढ़ा। मुद्रणकला यहा नही आई थी उस समय भी किसी एक नये ग्रन्थ की रचना होते ही उसकी सैकडो नकले तैयार हो जाती और देश के सब कोनो मे विद्वानो के पास पहुँच जाती। इस प्रकार जैन सम्प्रदाय मे ज्ञानसस्था की गगा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती आई है। ज्ञान के प्रति सजीव भक्ति के परिणामस्वरूप इस समय भी ये भण्डार इतने अधिक है और उनमे इतना अधिक विविध एव प्राचीन साहित्य है कि उसका अभ्यास करने के लिए विद्वानो की कमी महसूस होती है। विदेश के और इस देश के अनेक शोधको और विद्वानों ने इस भण्डारो के पीछे बरसो बिताये हैं और इनमे सगृहीत वस्तु तथा इनके प्राचीन रक्षाप्रबन्ध को देखकर वे चकित होते हैं।
ब्राह्मण और जैन भण्डारों के बीच अन्तर ब्राह्मण सम्प्रदाय के और जैन सम्प्रदाय के भण्डारो के बीच एक अन्तर है और वह यह कि ब्राह्मण भण्डार व्यक्ति की मालिकी के होते है, जब कि जैन भण्डार बहुधा सघ की मालिकी के होते है; और कही व्यक्ति की मालिकी के होते है तो भी उनका सदुपयोग करने के लिए व्यक्ति स्वतत्र होता है, परन्तु दुरुपयोग होता हो तो प्राय. सघ को सत्ता आकर खड़ी होती