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जैनधर्म का प्राण
तीर्थ खड़े किये है और वहाँ जाने का तथा उसके पीछे शक्ति, सम्पत्ति और समय का व्यय करने का हमारा उद्देश्य भी यही है ।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ४०५ - ४०८ )
(४) ज्ञानसंस्था - ज्ञान भण्डार
जहाँ मानवजाति है वहाँ ज्ञान का आदर सहज रूप से होता ही है और भारत मे तो ज्ञान की प्रतिष्ठा हजारों वर्षो से चली आती है । ब्राह्मण और श्रमण सम्प्रदाय की गंगा-यमुना की धाराएँ मात्र ज्ञान के विशाल पट पर ती आई है और बहती जाती है । भगवान महावीर का तप और कुछ नही, केवल ज्ञान की गहरी शोध है । जिस शोध के लिए उन्होने शरीर की परवाह न की, दिन-रात न देखे और उनकी जिस गहरी शोध को जाननेसुनने के लिए हजारों मनुष्यों का मानवसमूह उनके पास उमडता था वह शोध यानी ज्ञान; और उस पर भगवान के पथ का निर्माण हुआ है ।
ज्ञान और उसके साधनों की महिमा
उस ज्ञान ने श्रुत और आगम का अभिधान धारण किया । उसमें अभिवृद्धि भी हुई और स्पष्टताएँ भी होती रही। जैसे-जैसे इस श्रुत और आगम के मानससरोवर के किनारे पर जिज्ञासु हस अधिकाधिक सख्या मे आ
ये वैसे-वैसे ज्ञान की महिमा बढ़ती गई । इस महिमा के साथ ही ज्ञान को मूर्त करनेवाले स्थूल साधनो की महिमा भी बढती गई । ज्ञान की सुरक्षा में सीधे तौर पर मदद करनेवाले पुस्तक - पने ही नही, परन्तु उसमे उपयोगी होनेवाले ताड़पत्र, लेखनी, स्याही का भी ज्ञान के जितना ही आदर होने लगा । इतना ही नही, इन पोथी - पन्नों के वेष्टनो तथा उनको बाँधने और रखने के उपकरणो का भी बडा ही सत्कार होने लगा । ज्ञान देने-लेने मे जितना पुण्यकार्य, उतना ही ज्ञान के स्थूल उपकरणों के देने-लेने मे भी पुण्यकार्य समझा जाने लगा ।
ज्ञानभण्डारों की स्थापना और उनका विकास
एक और शास्त्रसग्रह और उनको लिखाने की बढ़ती जाती महिमा