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जैनधर्म का प्राण
२०७ देवद्रव्य के रक्षण की सुन्दर व्यवस्था जैनो के तीर्थ दो-पॉच या दस नही, और वे भी देश के किसी एक भाग मे नही, किन्तु जहाँ जायँ वहाँ चारो ओर फैले हुए है। यही किसी समय जैन समाज का विस्तार कितना था इसका सबूत है। जैन तीर्थों की एक खास सस्था ही है । गृह-मन्दिर तथा सर्वथा व्यक्तिगत स्वामित्व के मन्दिरों को एक ओर रखे, तो भी जिन पर छोटे-बडे सघ का आधिपत्य एव उनकी देखभाल हो ऐसे सघ के स्वामित्व वाले मन्दिरो मे छोटे-बडे भण्डार होते है। इन भण्डारो मे खासे पैसे जमा होते है, जिसे देवद्रव्य कहते है। इसमे सन्देह नहीं है कि यह देवद्रव्य इकट्ठा करने में, उसकी सारसभाल रखने मे और कोई उसे चॉऊ न कर जाय इसके लिए योग्य व्यवस्था करने मे जैन समाज ने अत्यन्त चतुरता और ईमानदारी बरती है। भारत के दूसरे किसी सम्प्रदाय के देवद्रव्य मे जैन सम्प्रदाय के जितनी स्वच्छता शायद ही कही दिखाई दे । इसी प्रकार देवद्रव्य उसके निर्दिष्ट उद्देश्य के अतिरिक्त अन्यत्र कही व्यय न हो, उसका दुरुपयोग न हो और कोई हजम न कर जाय उसके लिए जैन सघ ने एक नैतिक और सुन्दर व्यावहारिक वातावरण खडा किया है।
जानने योग्य बातें तीर्थसस्था के साथ मूर्ति का, मन्दिर का, भण्डार का और यात्रासघ निकालने का-इन चार का अत्यन्त मनोरजक और महत्त्वपूर्ण इतिहास जुडा हुआ है । लकड़ी, धातु और पत्थर ने मूर्ति और मन्दिरों मे किस-किस प्रकार, किस-किस युग मे कैसा कैसा भाग लिया, एक के बाद दूसरी व्यवस्था किस प्रकार आती गई, भण्डारो मे अव्यवस्था और गोलमाल कैसे पैदा हुए और उनकी जगह पुन व्यवस्था और नियत्रण किस तरह आये, समीप एव दूरस्थ तीर्थो मे हजारो और लाखो मनुष्यो के सघ यात्रा के लिए किस प्रकार जाते और साथ ही वे क्या-क्या काम करते--यह सारा इतिहास खूब जानने जैसा है।
त्याग, शान्ति और विवेकभाव प्राप्त करने की प्रेरणा मे से ही हमने