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जैनधर्म का प्राण
है। ब्राह्मण आश्विन मास में ही पुस्तकों मे से वर्षाकाल की नमी दूर करने और पुस्तको की देखभाल के लिए तीन दिन का सरस्वतीशयन नामक पर्व मनाते हैं, जबकि जैन कार्तिक शुक्ला पचमी को ज्ञानपचमी कहकर उस दिन पुस्तको और भण्डारी की पूजा करते है, और उस निमित्त द्वारा चौमासे से होनेवाले बिगाड को भडारो मे से दूर करते है । इस प्रकार जैन ज्ञानसस्था, जो एक समय मौखिक थी, उसमे अनेक परिवर्तन होते-होते और घट-बढ तथा अनेक वैविध्य का अनुभव करती-करती वह आज मूर्तरूप मे हमारे समक्ष इस रूप में विद्यमान है।
(द० अ० चि० भा० १, पृ० ३७३-३७५)
जैन ज्ञान-भण्डारों को असाम्प्रदायिक दृष्टि सैकडो वर्षों से जगह-जगह स्थापित बड़े-बडे ज्ञान-भण्डारो मे केवल जैन शास्त्र का या अध्यात्मशास्त्र का ही सग्रह-रक्षण नही हुआ है, बल्कि उसके द्वारा अनेकविध लौकिक शास्त्रो का असाम्प्रदायिक दृष्टि से सग्रह-सरक्षण हुआ है। क्या वैद्यक, क्या ज्योतिष, क्या मन्त्र-तन्त्र, क्या सगीत, क्या सामुद्रिक, क्या भाषाशास्त्र, काव्य, नाटक, पुराण, अलकार व कथाग्रन्थ और क्या सर्वदर्शन सबन्धी महत्त्व के शास्त्र-इन सबो का ज्ञानभण्डारो मे सग्रहसंरक्षण ही नही हुआ है, बल्कि इनके अध्ययन व अध्यापन के द्वारा कुछ विशिष्ट विद्वानो ने ऐसी प्रतिभामूलक नव कृतियाँ भी रची है जो अन्यत्र दुर्लभ है और मौलिक गिनी जाने लायक है तथा जो विश्वसाहित्य के सग्रह में स्थान पाने योग्य हैं । ज्ञानभण्डारो में से ऐसे ग्रंथ मिले है, जो बौद्ध आदि अन्य परंपरा के है और आज दुनिया के किसी भाग में मूलस्वरूप मे अभी तक उपलब्ध भी नही है।
(द० औ० चि० ख० २, पृ० ५१८-५१९)