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जैनधर्म का प्राण
या विस्तार से एक-सा पाते है । यह वस्तुस्थिति इतना सूचित करने के लिए पर्याप्त है कि कभी निवर्तकवादियो के भिन्न-भिन्न पक्षों में खूब विचारविनिमय होता था। यह सब कुछ होते हुए भी धीरे-धीरे ऐसा समय आ गया जब कि ये निवर्तकवादी पक्ष आपस में प्रथम जितने नजदीक न रहे। फिर भी हरएक पक्ष कर्मतत्त्व के विषय मे ऊहापोह तो करता ही रहा। इस बीच मे ऐसा भी हुआ कि किसी निवर्तकवादी पक्ष मे एक खासा कर्मचिन्तक वर्ग ही स्थिर हो गया, जो मोक्षसबधी प्रश्नो की अपेक्षा कर्म के विषय मे ही गहरा विचार करता था और प्रधानतया उसी का अध्ययन-अध्यापन करता था, जैसा कि अन्य-अन्य विषय के खास चिन्तकवर्ग अपने-अपने विषय मे किया करते थे और आज भी करते है । वही मुख्यतया कर्मशास्त्र का चिन्तकवर्ग जैन दर्शन का कर्मशास्त्रानुयोगधर वर्ग या कर्मसिद्धान्तज्ञ वर्ग है।
कर्मतत्त्व के विचार को प्राचीनता और समानता कर्म के बधक कारणो तथा उसके उच्छेदक उपायो के बारे मे तो सब मोक्षवादी गौणमुख्यभाव से एकमत ही है, पर कर्मतत्त्व के स्वरूप के बारे मे ऊपर निर्दिष्ट खास कर्मचिन्तक वर्ग का जो मन्तव्य है उसे जानना जरूरी है। परमाणुवादी मोक्षमार्गी वैशेषिक आदि कर्म को चेतननिष्ठ मानकर उसे चेतन-धर्म बतलाते थे, जब कि प्रधानवादी साख्य-योग उसे अन्त करणस्थित मानकर जडधर्म बतलाते थे। परन्तु आत्मा और परमाणु को परिणामी माननेवाले जैन चिन्तक अपनी जुदी प्रक्रिया के अनुसार कर्म को चेतन और जड उभय के परिणाम रूप से उभयरूप मानते थे। इनके मतानुसार आत्मा चेतन होकर भी साख्य के प्राकृत अन्त करण की तरह सकोचविकासशील था, जिसमे कर्मरूप विकार भी सभव है और जो जड़ परमाणुओं के साथ एकरस भी हो सकता है । वैशेषिक आदि के मतानुसार कर्म चेतनधर्म होने से वस्तुत चेतन से जुदा नही और साख्य के अनुसार कर्म प्रकृति धर्म होने से वस्तुत. जड़ से जुदा नही, जब कि जैन चिन्तको के मतानुसार कर्मतत्त्व चेतन और जड़ उभय रूप ही फलित होता है, जिसे वे भाव और द्रव्यकर्म भी कहते है।
यह सारी कर्मतत्त्व सबधी प्रक्रिया इतनी पुरानी तो अवश्य है जब कि