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जैनधर्म का प्राण
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सुव्यवस्था का निर्माण है, जबकि दूसरे का ध्येय निजी आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति है, अतएव यह मात्र आत्मगामी है । निवर्तकधर्म ही श्रमण, परिव्राजक, तपस्वी और योगमार्ग आदि नामो से प्रसिद्ध है । कर्मप्रवृत्ति अज्ञान एवं राग-द्वेष जनित होने से उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय अज्ञानविरोधी सम्यग् - ज्ञान और राग-द्वेषविरोधी रागद्वेषनाशरूप सयम ही स्थिर हुआ । बाकी के तप, ध्यान, भक्ति आदि सभी उपाय उक्त ज्ञान और सयम के ही साधनरूप से माने गए ।
aara सम्बन्धी विचार और उसका ज्ञाता वर्ग
निवर्तक धर्मवादियो को मोक्ष के स्वरूप तथा उसके साधनों के विषय तो ऊहापोह करना ही पड़ता था, पर इसके साथ उनको कर्मतत्त्वो के विषय मे भी बहुत विचार करना पडा । उन्होने कर्म तथा उसके भेदों की परिभाषाएँ एव व्याख्याएँ स्थिर की, कार्य और कारण की दृष्टि से कर्मतत्त्व का विविध वर्गीकरण किया, कर्म की फलदान - शक्तियो का विवेचन किया, जुदे-जुदे विपाको की काल - मर्यादाऍ सोची, कर्मो के पारस्परिक सब पर भी विचार किया । इस तरह निवर्तक धर्मवादियो का खासा कर्मतत्त्वविषयक शास्त्र व्यवस्थित हो गया और उसमे दिन प्रतिदिन नए-नए प्रश्नों और उनके उत्तरो के द्वारा अधिकाधिक विकास भी होता रहा । ये निवर्तकधर्मवादी जुदे जुदे पक्ष अपने सुभीते के अनुसार जुदा-जुदा विचार करते रहे, पर जब तक इन सब का समिलित ध्येय प्रवर्तक - धर्मवाद का खण्डन रहा तब तक उनमे विचार-विनिमय भी होता रहा और उनमें एकवाक्यता भी रही । यही सबब है कि न्याय-वैशेषिक, सांख्य- योग, जैन और बौद्ध दर्शन के कर्मविषयक साहित्य मे परिभाषा, भाव, वर्गीकरण आदि कां शब्दश. और अर्थश. साम्य बहुत कुछ देखने मे आता है ।
मोक्षवादियो के सामने एक जटिल समस्या पहले से यह थी कि एक तो पुराने बद्धकर्म ही अनन्त है, दूसरे उनका क्रमश फल भोगने के समय प्रत्येक क्षण मे नए-नए भी कर्म बघते हैं, फिर इन सब कर्मो का सर्वथा उच्छेद कैसे संभव है? इस समस्या का हल भी मोक्षवादियो ने बडी खूबो से किया था । आज हम उक्त निवृत्तिवादी दर्शनो के साहित्य मे उस हल का वर्णन सक्षेप