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जैनधर्म का प्राण
कर्मतत्त्व के चिन्तको मे परस्पर विचारविनिमय अधिकाधिक होता था। वह समय कितना पुराना है वह निश्चय रूप से तो कहा ही नही जा सकता, पर जैनदर्शन मे कर्मशास्त्र का जो चिरकाल से स्थान है, उस शास्त्र में जो विचारो की गहराई, शृखलाबद्धता तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म भावों का असाधारण निरूपण है इसे ध्यान में रखने से यह बिना माने काम नही चलता कि जैनदर्शन की विशिष्ट कर्मविद्या भगवान् पार्श्वनाथ के पहले अवश्य स्थिर हो चुकी थी। इसी विद्या के धारक कर्मशास्त्रज्ञ कहलाए और यही विद्या आग्रायणीय पूर्व तथा कर्मप्रवाद पूर्व के नाम से विश्रुत हुई। ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्वशब्द का मतलब भगवान महावीर के पहले से चला आनेवाला शास्त्रविशेष है। नि सदेह ये पूर्व वस्तुत भगवान पार्श्वनाथ के पहले से ही एक या दूसरे रूप मे प्रचलित रहे। एक ओर जैनचिन्तको ने कर्मतत्त्व के चिन्तन की ओर बहुत ध्यान दिया, जब कि दूसरी ओर साख्ययोग ने ध्यानमार्ग की ओर सविशेष ध्यान दिया। आगे जाकर जब तथागत बुद्ध हुए तब उन्होने भी ध्यान पर ही अधिक भार दिया। पर सबों ने विरासत मे मिले कर्मचिन्तन को अपना रखा । यही सबब है कि सूक्ष्मता और विस्तार मे जैन कर्मशास्त्र अपना असाधारण स्थान रखता है, फिर भी साख्य, योग, बौद्ध आदि दर्शनो के कर्मचिन्तनों के साथ उसका बहुतकुछ साम्य है और मूल मे एकता भी है, जो कर्मशास्त्र के अभ्यासियों के लिए ज्ञातव्य है।
जैन तथा अन्य दर्शनों की ईश्वर के सृष्टिकर्तृत्व सम्बन्धी मान्यता
कर्मवाद का मानना यह है कि सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच आदि जो अनेक अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती है, उनके होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्य-अन्य कारणो की तरह कर्म भी एक कारण है । परन्तु अन्य दर्शनो की तरह कर्मवाद-प्रधान जैन-दर्शन ईश्वर को उक्त अवस्थाओ का या सृष्टि की उत्पत्ति का कारण नहीं मानता। दूसरे दर्शनो मे किसी समय सृष्टि का उत्पन्न होना माना गया है, अतएव उनमें सृष्टि की उत्पत्ति के साथ किसी-न-किसी तरह का ईश्वर का सबन्ध जोड़ दिया गया है। न्यायदर्शन मे कहा है कि अच्छे-बुरे कर्म के फल ईश्वर की प्रेरणा से मिलते