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जैनधर्म का प्राण
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आध्यात्मिक क्यों है ? इत्यादि कुछ प्रश्नो के ऊपर विचार करना आवश्यक है।
'आवश्यक क्रिया' की प्राचीन विधि कहीं सुरक्षित है ? परन्तु इसके पहिले यहाँ एक बात बतला देना जरूरी है और वह यह है कि 'आवश्यक-क्रिया करने की जो विधि चूर्णि के जमाने से भी बहुत प्राचीन थी और जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रमूरि जैसे प्रतिष्ठित आचार्य ने अपनी आवश्यक-वृत्ति पृ० ७९० मे किया है, वह विधि बहुत अशो मे अपरिवर्तित रूप से ज्यो की त्यो जैसी श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक सम्प्रदाय म चली आती है, वैसी स्थानकवासी-सम्प्रदाय मे नही है । यह बात तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि गच्छो की सामाचारी देखने से स्पष्ट मालूम हो जाती है। स्थानकवासी-सम्प्रदाय की सामाचारी मे जिस प्रकार 'आवश्यक-क्रिया' मे बोले जानेवाले कई प्राचीन सूत्रों की, जैसे--पुक्खरवरदीवड्ड, सिद्धाण बुद्धाण, अरिहतचेइयाण, आयरियउवज्झाए, अब्भुट्ठियोह इत्यादि की काट-छाट कर दी गई है, इसी प्रकार उसमे प्राचीन विधि की भी काटछाट नजर आती है। इसके विपरीत तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि की सामाचारी मे 'आवश्यक' के प्राचीन सूत्र तथा प्राचीन विधि में कोई परिवर्तन किया हुआ नजर नही आता। अर्थात् उसमे 'सामाजिक-आवश्यक' से लेकर यानी प्रतिक्रमण की स्थापना से लेकर 'प्रत्याख्यान' पर्यन्त के छहों 'आवश्यक' के सूत्रो का तथा बीच मे विधि करने का सिलसिला बहुधा वही है, जिसका उल्लेख श्रीहरिभद्रसूरि ने किया है।
___ 'आवश्यक' किसे कहते है ? जो क्रिया अवश्य करने योग्य है उसी को 'आवश्यक' कहते है । 'आवश्यक-क्रिया' सब के लिए एक नही, वह अधिकारी-भेद से जुदी-जुदी है। इसलिए 'आवश्यक-क्रिया' का स्वरूप लिखने के पहले यह बतला देना जरूरी है कि इस जगह किस प्रकार के अधिकारियो का आवश्यक-कर्म विचारा जाता है। ___सामान्यरूप से शरीर-धारी प्राणियो के दो विभाग है (१) बहिदृष्टि, और (२) अन्तर्दृष्टि । जो अन्तर्दृष्टि है-जिनकी दृष्टि आत्मा