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जैनधर्म का प्राण की ओर झुकी है अर्थात् जो सहज सुख को व्यक्त करने के विचार मे तथा प्रयत्न मे लगे हुए है, उन्ही के 'आवश्यक-कर्म' का विचार इस जगह करना है। इस कथन से यह स्पष्ट सिद्ध है कि जो जड़ मे अपने को नहीं भूले हैजिनकी दृष्टि को किसी भी जड़ वस्तु का सौन्दर्य लुभा नही सकताउनका 'आवश्यक-कर्म' वही हो सकता है, जिसके द्वारा उनकी आत्मा सहज सुख का अनुभव कर सके । अन्तदृ ष्टिवाली आत्मा सहज सुख का अनुभव तभी कर सकती है, जबकि उसके सम्यक्त्व, चेतना, चारित्र आदि गुण व्यक्त हों। इसलिए वह उस क्रिया को अपना 'आवश्यक-कर्म' समझती है, जो सम्यक्त्व आदि गुणो का विकास करने में सहायक हो। अतएव इस जगह सक्षेप मे 'आवश्यक' की व्याख्या इतनी ही है कि ज्ञानादि गुणों को प्रकट करने के लिए जो क्रिया अवश्य करने के योग्य है, वही 'आवश्यक है।
ऐसा 'आवश्यक' ज्ञान और क्रिया---उभय परिणामरूप अर्थात् उपयोगपूर्वक की जानेवाली क्रिया है। यही कर्म आत्मा को गुणों से वासित करानेवाला होने के कारण 'आवश्यक' भी कहलाता है। वैदिकदर्शन में 'आवश्यक' समझे जानेवाले कर्मों के लिए 'नित्यकर्म' शब्द प्रसिद्ध है। जैनदर्शन में 'अवश्य-कर्तव्य' 'ध्रुव', निग्रह, विशोधि, अध्ययनषट्क, वर्ग, न्याय, आराधना, मार्ग आदि अनेक शब्द ऐसे है, जो कि आवश्यक' शब्द के समानार्थक-पर्याय है।
आवश्यक का स्वरूप स्थूल दृष्टि से 'आवश्यक-क्रिया' के छः विभाग अर्थात् भेद किये गए है:(१) सामायिक, (२) चतुर्विशतिस्तव, (३) वन्दन, (४) प्रतिक्रमण, (५) कायोत्सर्ग, और (६) प्रत्याख्यान ।
(१) सामाविक-राग और द्वेष के वश न होकर समभाव-मध्यस्थभाव मे रहना अर्थात् सबके साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना 'सामायिक' है। इसके (१) सम्यक्त्वसामायिक, (२) श्रुतसामायिक, और (३) चारित्रसामायिक, ये तीन भेद है, क्योकि सम्यक्त्व द्वारा, श्रुत
१. आवश्यकवृत्ति पृ० ५३ ॥ २. आवश्यकनियुक्ति गाथा १०३२ ।