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प्रावश्यक क्रिया
वैदिकसमाज मे 'सन्ध्या' का, पारसी लोगो मे 'खोरदेह अवस्ता' का, यहूदी तथा ईसाइयो मे 'प्रार्थना' का और मुसलमानो मे 'नमाज' का जैसा महत्त्व है, जैन समाज मे वैसा ही महत्त्व आवश्यक' का है। ___ साधुओ को तो सुबह-शाम अनिवार्य रूप से 'आवश्यक' करना ही पडता है, क्योकि शास्त्र मे ऐसी आज्ञा है कि प्रथम और चरम तीर्थकर के साधु 'आवश्यक' नियम से करे । अतएव यदि वे उस आज्ञा का पालन न करे तो साधु-पद के अधिकारी ही नही समझे जा सकते।
श्रावको मे 'आवश्यक' का प्रचार वैकल्पिक है। अर्थात् जो भावुक और नियमवाले होते है, वे अवश्य करते है और अन्य श्रावकों की प्रवृत्ति इस विषय मे ऐच्छिक है। फिर भी यह देखा जाता है कि जो नित्य 'आवश्यक' नही करता, वह भी पक्ष के बाद, चतुर्मास के बाद या आखिरका सवत्सर के बाद उसको यथासम्भव अवश्य करता है।
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय मे 'आवश्यक-क्रिया' का इतना आदर है कि जो व्यक्ति अन्य किसी समय धर्मस्थान मे न जाता हो वह तथा छोटे-बड़े बालकबालिकाएँ भी बहुधा सांवत्सरिक पर्व के दिन धर्मस्थान मे 'आवश्यक-क्रिया' करने के लिए एकत्र हो ही जाते हैं और उस क्रिया को करके सभी अपना अहोभाग्य समझते है । इस प्रवृत्ति से यह स्पष्ट है कि 'आवश्यक-क्रिया' का महत्त्व श्वेताम्बर-सम्प्रदाय में कितना अधिक है। इसी सबब से सभी लोग अपनी सन्तति को धार्मिक शिक्षा देते समय सबसे पहिले 'आवश्यकक्रिया' सिखाते है । _ 'आवश्यक-क्रिया' किसे कहते है ? सामायिक आदि प्रत्येक 'आवश्यक' का क्या स्वरूप है ? उनके भेद-क्रम की उपपत्ति क्या है ? 'आवश्यक-क्रिया"