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जैनदर्शन जोरोंसे प्रचार था। आत्माको आत्यन्तिक शुद्धिकी सम्भावना न होनेसे जोवनका लक्ष्य ऐहिक स्वर्गादि विभूतियोंकी प्राप्ति तक ही सीमित था। श्रेयकी अपेक्षा प्रेयमें ही जीवनको सफलता मान ली गई थी। किन्तुनिर्मल आत्मा स्वयं प्रमाण :
भ० महावीरने राग, द्वेप आदिके क्षयका तारतम्य देखकर आत्माकी पूर्ण वीतराग शुद्ध अवस्था तथा ज्ञानकी परिपूर्ण निर्मल दशाको असंभव नहीं माना और उनने अपनी स्वयं साधना द्वारा निर्मल ज्ञान तथा वीतरागता प्राप्त की। उनका सिद्धान्त था कि पूर्ण ज्ञानी वीतराग अपने निर्मल ज्ञानसे धर्मका साक्षात्कार कर सकता और द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी परिस्थितिके अनुसार उसके स्वरूपका निर्माण भो वह करता है । युग-युग में ऐसे ही महापुरुष धर्मतीर्थके कर्ता होते है और मोक्षमार्गके नेता भी। वे अपने अनुभूत धर्ममार्गका प्रवर्तन करते हैं, इसीलिए उन्हें तीर्थंकर कहते हैं । वे धर्मके नियम-उपनियमोंमें किसी पूर्वश्रुत या ग्रन्थका सहारा न लेकर अपने निर्मल अनुभवके द्वारा स्वयं धर्मका साक्षात्कार करते हैं और उसी मार्गका उपदेश देते है। जब तक उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता तब तक वे मौन रहते है और मात्र आत्मसाधनामें लीन रहकर उस क्षणकी प्रतीक्षा करते हैं जिस क्षणमें उन्हें निर्मल बोधिकी प्राप्ति होती है । यद्यपि पूर्व तीर्थंकरोंद्वारा प्रणीत श्रुत उन्हें विरासतमें मिलता है, परन्तु वे उस पूर्व श्रुतके प्रचारक न होकर स्वयं अनुभूत धर्मतीर्थकी रचना करते हैं, इसीलिये वे तीर्थंकर कहे जाते है । यदि वे पूर्व श्रुतका ही मुख्यरूपसे सहारा लेते तो उनकी स्थिति आचार्योसे अधिक नहीं होती। यह ठीक है कि एक तीर्थकरका उपदेश दूसरे तीर्थकरसे मूलसिद्धान्तोंमें भिन्न नहीं होता; क्योंकि सत्य त्रिकालाबाधित होता है और एक होता है । वस्तुका स्वरूप भी जब सदासे एक मूल धारामें प्रवाहित है तब उसका मूल साक्षाकार विभिन्न कालोंमें भी दो प्रकारका नहीं हो सकता। श्रीमद् रायचन्द्रने