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भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ५९ कृष्ट अन्य पदार्थ भो वेदके द्वारा ही ज्ञात हो सकेंगे, इनमें पुरुषका ज्ञान साक्षात् प्रवृत्ति नहीं कर सकता। पुरुष प्रायः राग, द्वेष और अज्ञानसे दूषित होते है । उनका आत्मा इतना निष्कलंक और ज्ञानवान् नहीं हो सकता, जो प्रत्यक्षसे अतीन्द्रियदर्शी हो सके । न्याय-वैशेषिक और योग परम्पराओंने वेदको उस नित्य ज्ञानवान् ईश्वरकी कृति माना, जो अनादिसिद्ध है । ऐसा नित्य ज्ञान दूसरी आत्माओंमें संभव नहीं है। निष्कर्ष यह कि वर्तमान वेद, चाहे वह अपौरुषेय हो या अनादिसिद्ध ईश्वरकर्तृक, शाश्वत है और धर्मके विषयमें अपनी निर्बाध सत्ता रखता है । अन्य महषियोंके द्वारा रची गई स्मृतियाँ आदि यदि वेदानुसारिणी हैं, तो ही प्रमाण है अन्यथा नहीं; यानी प्रमाणताकी ज्योति वेदको अपनी है।
लौकिक व्यवहारमें शब्दको प्रमाणताका आधार निर्दोषता है । वह निर्दोषता दो ही प्रकारसे आती है-एक तो गुणवान् वक्ता होनेसे और दूसरे, वक्ता ही न होनेसे । आचार्य कुमारिल स्पष्ट लिखते हैं कि 'शब्दमें दोषोंकी उत्पत्ति वक्तासे होती है । उसका अभाव कहीं तो गुणवान् वक्ता होनेसे हो जाता है; क्योंकि वक्ताके यथार्थवेदित्व आदि गुणोंसे दोषोंका अभाव होनेपर वे दोष शब्दमें अपना स्थान नहीं जमा पाते । दूसरे, वक्ताका अभाव होनेसे निराश्रय दोष नहीं रह सकते । पुरुष प्रायः अनृतवादी होते हैं । अतः इनके वचनोंको धर्मके मामले में प्रमाण नहीं माना जा सकता । ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर आदि देव वेददेह होनेसे ही प्रमाण हैं,
और इसका यह फल था कि वेदसे जन्मसिद्ध वर्णव्यवस्था तथा स्वर्गप्राप्तिके लिये अजमेध, अश्वमेध, गोमेध यहाँ तक कि नरमेध आदिका
१. "शब्दे दोषोद्भवस्तावद् वक्त्रधीन इति स्थितम् ।
तदभावः क्वचित्तावद् गुणवद्वक्तृकत्वतः ॥ ६२ ॥ तद्गुणैरपकृष्टानां शब्दे संक्रान्त्यसंभवात् । यद्वा वक्तुरभावेन न स्युदोंषा निराश्रयाः ॥ ६३ ॥".
-मी० श्लो० चोदना०।