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________________ भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन ६१ ठोक ही कहा है कि-"करोड़ ज्ञानियोंका एक ही विकल्प होता है जब कि एक अज्ञानीके करोड़ विकल्प होते हैं।" इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि करोड़ ज्ञानी अपने निर्मल ज्ञानके द्वारा चूंकि सत्यका साक्षात्कार करते हैं, अतः उनका पूर्ण साक्षात्कार दो प्रकारका नहीं हो सकता। जब कि एक अज्ञानी अपनी अनेक प्रकारको वासनाके अनुसार वस्तुके स्वरूपको रंग-विरंगा, चित्र-विचित्ररूपमें आरोपित कर देखता है। अर्थात् ज्ञानी सत्यको जानता है, बनाता नहीं; जब कि अज्ञानी अपनी वासनाओंके अनुसार सत्यको बनानेका प्रयत्न करता है । यही कारण है कि अज्ञानीके कथनमें पूर्वापर विरोध पग-पगपर विद्यमान रहता है। दो अज्ञानियोंका कथन एक-जैसा नहीं हो सकता, जब कि असंख्य ज्ञानियोंका कथन मूलरूपमें एक ही तरहका होता है। दो अज्ञानियोंकी बात जाने दीजिये, एक ही अज्ञानी कषायवश कभी कुछ कहता है और कभी कुछ । वह स्वयं विवाद बोर असंगतिका केन्द्र होता है । मैं आगे धर्मज्ञताके दार्शनिक मुद्देपर विस्तारसे लिखूगा । यहाँ तो इतना ही निर्देश करना इष्ट है कि जैनदर्शनकी धर्मज्ञता और सर्वज्ञताकी मान्यताका यह जीवनोपयोगी तथ्य है कि पुरुष अपनी वीतराग और निर्मल ज्ञानको दशामें स्वयं प्रमाण होता है । वह आत्मसंशोधनके मार्गोका स्वयं साक्षात्कार करता है। अपने धर्मपथका स्वयं ज्ञाता होता है और इसीलिए मोक्षमार्गका नेता भी होता है । वह किसी अनादिसिद्ध अपौरुषेय ग्रन्थ या श्रुति-परंपराका व्याख्याता या मात्र अनुसरण करनेवाला ही नहीं होता। यही कारण है कि श्रमण-परम्परामें कोई अनादिसिद्ध श्रुति या ग्रन्थ नहीं है, जिसका अन्तिम निर्णायक अधिकार धर्ममार्गमें स्वीकृत हो । वस्तुतः शब्दके गुण-दोष वक्ताके गुण-दोषके आधीन हैं। शब्द तो एक निर्जीव माध्यम है, जो वक्ताके प्रभावको ढोता है। इसीलिये श्रमण-परम्परामें शब्दकी पूजा न होकर, वीतराग-विज्ञानी सन्तोंकी पूजा की जाती है । इन सन्तोंके उपदेशोंका संग्रह ही 'श्रुत' कहलाता है, जो आगेके आचार्यों और साधकोंके
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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