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विषय प्रवेश
करता है, उनसे निरपेक्ष रहता है और उनकी वस्तुस्थितिका प्रतिषेध करता है वह 'दुर्नय' है; क्योंकि वस्तुस्थिति ऐसी हैं ही नहीं। वस्तु तो गुणधर्म या पर्यायके रूपमें प्रत्येक नयके विषयभूत अभिप्रायको वस्त्वंश मान लेनेकी उदारता रखती है और अपने गुणपर्यायवाले वास्तविक स्वरूपके साथ ही अनन्तधर्मवाले व्यावहारिक स्वरूपको धारण किये हुए हैं। पर ये दुर्नय उसकी इस उदारताका दुरुपयोग कर मात्र अपने कल्पित धर्मको उसपर छा देना चाहते हैं।
"सत्य पाया जाता है, बनाया नहीं जाता।' प्रमाण सत्य वस्तुको पाता है, इसलिये चुप है । पर कुछ नय उसी प्रमाणको अंशग्राही सन्तान होकर भी अपनी वावदूकताके कारण सत्यको बनानेकी चेष्टा करते हैं, सत्यको रंगीन तो कर ही देते हैं।
जगत्के अनन्त अर्थोंमें बचनोंके विषय होनेवाले पदार्थ अत्यल्प हैं। शब्दकी यह सामर्थ्य कहाँ, जो वह एक भी वस्तुके पूर्ण रूपको कह सके ? केवलज्ञान वस्तुके अनन्तधर्मोको जान भी ले पर शब्दके द्वारा उसका अनन्तबहभाग अवाच्य ही रहता है। और जो अनन्तवांभाग वाच्यकोटिमें है उसका अनन्तवा भाग शब्दसे कहा जाता है और जो शब्दोंसे कहा जाता है वह सब-का-सब ग्रन्थमें निबद्ध नहीं हो पाता। अर्थात् अनभिधेय पदार्थ अनन्तबहुभाग हैं और शब्दके द्वारा प्रज्ञापनीय पदार्थ एक भाग । प्रज्ञापनीय एक भागमेंसे भी श्रुतनिबद्ध अनन्तएकभाग प्रमाण हैं, अर्थात् उनसे और भी कम है। सुदर्शन और कुदर्शन:
अतः जब वस्तुस्थितिकी अनन्तधर्मात्मकता, शब्दकी अत्यल्प सामर्थ्य
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१. “पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । ___पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो दु सुदणिवद्धो॥"
-गो० जीवकाण्ड गा० ३३३ ।