SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ जैनदर्शन तथा अभिप्रायको विविधताका विचार करते हैं तो ऐसे दर्शनसे, जो दृष्टिकोण या अभिप्रायकी भूमिपर अंकुरित हुआ है, वस्तुस्थिति तक पहुँचने के लिए बड़ी सावधानीको आवश्यकता है । जिस प्रकार नयके सुनय और दुर्न विभाग, सापेक्षता और निरपेक्षताके कारण ते हैं उसी तरह 'दर्शन' के भी सुदर्शन और कुदर्शन ( दर्शनाभास ) विभाग होते हैं । जो दर्शन अर्थात् दृष्टिकोण वस्तुकी सीमाको उल्लंघन नहीं करके उसे पाने की चेष्टा करता है, बनानेकी नहीं, और दूसरे वस्तुस्पर्शी दृष्टिकोण - दर्शनको भी उचित स्थान देता है, उसकी अपेक्षा रखता है वह सुदर्शन है और जो दर्शन केवल भावना और विश्वासकी भूमिपर खड़ा होकर कल्पनालोकमें विचरण कर वस्तुसीमाको लांघकर भी वास्तविकताका दंभ करता है, अन्य वस्तुग्राही दृष्टिकोणोंका तिरस्कार कर उनकी अपेक्षा नहीं करता वह कुदर्शन है । दर्शन अपने ऐसे कुपूतोंके कारण ही मात्र संदेह और परीक्षाकी कोटिमें जा पहुँचा है । अतः जैन तीर्थकरों और आचार्यांने इस बातकी सतर्कतासे चेष्टा की है कि कोई भी अधिगमका उपाय, चाहे वह प्रमाण ( पूर्ण ज्ञान ) हो या नय ( अंशग्राही ), सत्यको पानेका यत्न करे, बनानेका नहीं । वह मौजूद वस्तुकी मात्र व्याख्या कर सकता है । उसे अपनी मर्यादाको समझते रहना चाहिए । वस्तु तो अनन्तगुण- पर्याय और धर्मोका पिंड़ है । उसे विभिन्न दृष्टिकोणोंसे देखा जा सकता है और उसके स्वरूपकी ओर पहुँचनेकी चेष्टा की जा सकती है । इस प्रकारके यावत् दृष्टिकोण और वस्तु तक पहुँचने के समस्त प्रयत्न द ेन शब्दकी सीमामें आते हैं । दर्शन एक दिव्य ज्योति : विभिन्न देशों में आज तक सहस्रों ऐसे ज्ञानी हुए, जिनने अपने-अपने दृष्टिकोणोंसे जगत् की व्याख्या करनेका प्रयत्न किया है । इसीलिए दर्शनका क्षेत्र सुविशाल है और अब भी उसमें उसी तरह फैलनेकी गुञ्जाइश
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy