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जैनदर्शन निर्देशानुसार आगे बढ़ती है। यही कारण है कि दर्शनोंमें अभिप्राय और दृष्टिकोणके भेदसे असंख्य भेद हो जाते हैं। इस तरह नयके अर्थमें भी दर्शनका प्रयोग एक हद तक ठीक बैठता है। __ इन नयोंके तीन विभाग किये गये हैं-ज्ञाननय, अर्थनय और शब्दनय । ज्ञाननय अर्थकी चिन्ता नहीं करके संकल्पमात्रको ग्रहण करता है
और यह विचार या कल्पनालोकमें विचरता है। अर्थनयमें संग्रहनयको मर्यादाका प्रारम्भ तो अर्थसे होता है पर वह आगे वस्तुके मौलिक सत्त्वकी मर्यादाको लांघकर काल्पनिक अभेद तक जा पहुँचता है। संग्रहनय जब तक एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें अभेदको विषय करता है यानी वह एक द्रव्यगत अभेदकी सीमामें बहता है तब तक उसको वस्तुसम्बद्धता है । पर जब वह दो द्रव्योंमें सादृश्यमूलक अभेदको विषय कर आगे बढ़ता है तब उसकी वस्तुमूलकता पिछड़ जाती है। यद्यपि एकका दूसरेमें सादृश्य भी वस्तुगत ही है पर उसकी स्थिति पर्यायकी तरह सर्वथा परनिरपेक्ष नहीं है। उसकी अभिव्यंजना परसापेक्ष होती है। जब यह संग्रह 'पर' अवस्थामें पहुँच कर 'सत्' रूपसे सकल द्रव्यगत एक अभेदको 'सत्' इस दृष्टिकोणसे ग्रहण करता है तब उसकी कल्पना चरम छोर पर पहुँच तो जाती है, पर इसमें द्रव्योंकी मौलिक स्थिति धुंधली पड़ जाती है। इसी भयसे जैनाचार्योंने नयके सुनय और दुर्नय ये दो विभाग कर दिये हैं। जो नय अपने अभिप्रायको मुख्य बनाकर भी नयान्तरके अभिप्रायका निषेध नहीं करता वह सुनय हैं और जो नयान्तरका निराकरण कर निरपेक्ष राज्य करना चाहता है वह दुनय है। सुनय सापेक्ष होता है और दुर्नय निरपेक्ष । इसीलिये सुनयके अभिप्रायकी दौड़ उस सादृश्यमूलक चरम अभेद तक हो जाने पर भी, चूंकि वह परमार्थसत् भेदका निषेध नहीं करता, उसकी अपेक्षा रखता है, और उसकी वस्तुस्थितिको स्वीकार करता हैं, इसलिये सुनय कहलाता है। किन्तु जो नय अपने ही अभिप्राय और दृष्टिकोणकी सत्यताको वस्तुके पूर्णरूपपर लादकर अपने साथी अन्य नयोंका तिरस्कार