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जैनदर्शन
अणुरूपसे साक्षात्कार किया, वह अंगुष्ठमात्र है । 'कुछको देहरूप ही देहके आकार संकोच - विकासशील ।
यथार्थ और पूर्ण है ।
अपने दर्शनसे बताया कि आत्मा सर्वव्यापक है, तो दूसरे ऋषियोंने उसका वटबीजके समान अत्यन्त सूक्ष्म है या आत्मा दिखा तो किन्हींको छोटे-बड़े विचारा जिज्ञासु अनेक पगडंडियोंवारे इस दशराहे पर खड़ा होकर दिग्भ्रान्त हो जाता है । वह या तो दर्शनशब्द के अर्थमें ही शंका करता है या फिर दर्शनकी पूर्णता में ही अविश्वास करने लगता है । प्रत्येक दर्शनका यही दावा है कि वही एक ओर ये दर्शन मानवके मनन तर्कको जगाते हैं, पर ज्यों ही मनन- तर्क अपनी स्वाभाविक खुराक मांगता है तो "तर्कोऽप्रतिष्ठः "" "तर्काप्रतिष्ठानात् "" “नैषा तर्केण मतिरपनेया” जैसे बन्धनों से उसका मुँह बन्द किया जाता है । 'तर्कसे कुछ नहीं हो सकता' इत्यादि तर्कनैराश्यका प्रचार भी इसी परम्पराका कार्य है । जब इन्द्रियगम्य पदार्थों में तर्ककी आवश्यकता नहीं और उपयोगिता भी नहीं है तथा अतीन्द्रिय पदार्थोंमें उसकी निःसारता एवं अक्षमता है तो फिर उसका क्षेत्र क्या बचता है ? आचार्य हरिभद्र तर्ककी असमर्थता बहुत स्पष्ट रूपसे बताते हैं
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"ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्थां यद्यतीन्द्रियाः ।
कालेनैतावता तेषां कृतः स्यादर्थनिर्णयः ।। " - योगदृष्टिस०१४५ ।
अर्थात् — यदि हेतुवाद- तर्कके द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थोंका निश्चय करना शक्य होता तो आज तक बड़े-बड़े तर्कमनीषी हुए, वे इन पदार्थोंका निर्णय अभी तक कर चुके होते । परन्तु आतीन्द्रिय पदार्थोंके स्वरूपकी पहेली पहलेसे भी अधिक उलझी है । उस विज्ञानकी जय मानना चाहिये जिसने भौतिक पदार्थोंकी अतीन्द्रियता बहुत हद तक समाप्त कर दी है और उसका फैसला अपनी प्रयोगशालामें कर डाला है ।
१. महाभारत वनपर्व ३१३ । ११० । ३. कठोपनिषत् २।९ ।
२. ब्रह्मसू० २।१।११।