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________________ विषय प्रवेश तक चलता है जब तक प्रयोगशालामें दोनोंको मिलाकर जल नहीं बना दिया जाता । जब दर्शनोंमें पग-पग पर पूर्व पश्चिम जैसा विरोध विद्यमान है तब स्वभावतः जिज्ञासुको यह सन्देह होता है कि-दर्शन शब्दका सचमुच साक्षात्कार अर्थ है या नहीं ? या यदि यही अर्थ है तो वस्तुके पूर्ण रूपका वह दर्शन है या नहीं ? यदि वस्तुके पूर्ण स्वरूपका दर्शन भी हुआ हो तो उसके वर्णनकी प्रक्रियामें अन्तर है क्या ? दर्शनोंके परस्पर विरोधका कोई-न-कोई ऐसा ही हेतु होना ही चाहिये । दूर न जाइये, सर्वथा और सर्वतः सन्निकट और प्रतिश्वास अनुभवमें आनेवाले आत्माके स्वरूप पर ही दर्शनकारोंके साक्षात्कारपर विचार कीजिये। सांख्य आत्माको कूटस्थ नित्य मानते हैं । इनके मतमें आत्मा साक्षी चेता निर्गुण अनाद्यनन्त अविकारी और नित्य तत्त्व है। बौद्ध ठीक इसके विपरीत प्रतिक्षण परिवर्तनशील चित्तक्षणरूप ही आत्मा मानते हैं। नैयायिक-वैशेषिक परिवर्तन तो मानते हैं, पर वह परिवर्तन भिन्न गुण तथा क्रिया तक हो सीमित है, आत्मामें उसका असर नहीं होता। मीमांसकने अवस्थाभेदकृत परिवर्तन स्वीकार करके भी और उन अवस्थाओंका द्रव्यसे कथञ्चित् भेदाभेद मानकर भी द्रव्यको नित्य स्वीकार किया है जैनोंने अवस्थापर्यायभेदकृत परिवर्तनके मूल आधार द्रव्यमें परिवर्तन कालमें किसी स्थायो अंशको नहीं माना, किन्तु अविच्छिन्न पर्यायपरम्पराके अनाद्यनन्त चालू रहनेको ही द्रव्य माना है। यह पर्यायपरम्परा न कभी विच्छिन्न होती है और न उच्छिन्न ही। वेदान्ती इस जीवको ब्रह्मका प्रातिभासिक रूप मानता है तो चार्वाक इन सबसे भिन्न भूतचतुष्टयरूप ही आत्मा स्वीकार करता है-उसे आत्माके स्वतन्त्र तत्त्वके रूपमें कभी दर्शन नहीं हुए। यह तो आत्माके स्वरूप-दर्शनका हाल है। अब उसकी आकृतिपर विचार करें, तो ऐसे ही अनेक दर्शन मिलते हैं । 'आत्मा अमूर्त है या मूर्त होकर भी वह इतना सूक्ष्मतम है कि हमें इन चर्मचक्षुओंसे नहीं दिखाई देता' इसमें सभी एकमत हैं। इसलिये कुछ अतीन्द्रियदर्शी ऋषियोंने
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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