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जैनदर्शन
उसकी प्रक्रियाके विवेचनमें प्रवृत्त हुए। बौद्धदर्शनमें आत्माकी अभौतिकता का समर्थन तथा शास्त्रार्थ पीछे आये अवश्य, पर मूलमे बुद्धने इसके स्वरूपके सम्बन्धमें मौन ही रखा । इसका विवेचन उनने दो 'न' के सहारे किया और कहा कि-आत्मा न तो भौतिक है और न शाश्वत हो है । न वह भूतपिण्डकी तरह उच्छिन्न होता है और न उपनिषद्वादियोंके अनुसार शाश्वत होकर सदा काल एक रहता है। फिर है क्या ? इसको उनने अनुपयोगी ( इसका जानना न निर्वाणके लिए आवश्यक है और न ब्रह्मचर्य के लिए ही ) कहकर टाल दिया। अन्य भारतीय दर्शन 'आत्मा' के स्वरूपके सम्बन्धमें चुप नहीं रहे, किन्तु उन्होंने अपने अपने ग्रंथों में इतर मतोका निरास करके पर्याप्त ऊहापोह किया है। उनके लिए यह मूलभूत समस्या थी, जिसके ऊपर भारतीय चिन्तन और साधनाका महाप्रासाद खड़ा होता है । इस तरह संक्षेपमें देखा जाय तो भारतीय दर्शनोंकी चिन्तन और मननकी धुरी 'आत्मा और विश्वका स्वरूप' ही रही है। इसीका श्रवण, दर्शन, मनन, चिन्तन और निदध्यासन जीवनके अन्तिम लक्ष्य थे। दर्शन शब्दका अर्थ :
साधारणतया दर्शनका मोटा और स्पष्ट अर्थ है साक्षात्कार करना, प्रत्यक्षज्ञान से किसी वस्तुका निर्णय करना । यदि दर्शनका यही अर्थ है तो दर्शनोंमें तीन और छहकी तरह परस्पर विरोध क्यों है ? प्रत्यक्ष दर्शनसे जिन पदार्थोंका निश्चय किया जाता है उनमें विरोध, विवाद या मतभेदकी गुञ्जाइश नहीं रहती। आजका विज्ञान इसीलिए प्रायः निर्विवाद और सर्वमतिसे सत्यपर प्रतिष्ठित माना जाता है कि उसके प्रयोगांश केवल दिमागी न होकर प्रयोगशालाओंमें प्रत्यक्ष ज्ञान या तन्मूलक अव्यभिचारी कार्यकारणभावकी दृढ़ भित्तिपर आश्रित होते हैं । 'हाइड्रोजन और ऑक्सिजन मिलकर जल बनता है' इसमें मतभेद तभी