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________________ विषय प्रवेश दर्शनका अर्थ निर्विकल्पक नहीं : बौद्ध परम्परा में दर्शन शब्द निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अर्थमें व्यवहृत होता है। इसके द्वारा यद्यपि यथार्थ वस्तुके सभी धर्मोंका अनुभव हो जाता है, अखंडभावसे पूरी वस्तु इसका विषय बन जाती है, पर निश्चय नहीं होताउसमें संकेतानुसारी शब्दप्रयोग नहीं होता। इसलिये उन उन अंशोंके निश्चयके लिये विकल्पज्ञान तथा अनुमानकी प्रवृत्ति होती है । इस निविकल्पक प्रत्यक्षके द्वारा वस्तुका जो स्वरूप अनुभवमें आता है वह वस्तुतः शब्दोंके अगोचर है । शब्द वहाँ तक नहीं पहुँच सकते । समस्त वाच्यवाचक व्यवहार बुद्धि कल्पित है, वह दिमाग तक ही सीमित है । अतः इस दर्शनके द्वारा हम वस्तुको जान भी लें तो भी वह उसी रूपमें हमारे वचन-व्यवहार में नहीं आ सकती । साधारण रूपसे इतना ही समझ सकते हैं कि निर्विकल्पक दर्शनसे वस्तुके अखंड रूपकी कुछ झाँकी मिलती है, जो शब्दोंके अगोचर है । अतः 'दर्शनशास्त्र' का दर्शन शब्द इस 'निर्विकल्पक प्रत्यक्ष' की सीमामें नहीं बंध सकता; क्योंकि दर्शनका सारा फैलाव विकल्पक्षेत्र और शब्दप्रयोगकी भूमि पर हुआ है। अर्थक्रियाके लिये वस्तुके निश्चयकी आवश्यकता है। यह निश्चय विकल्परूप ही होता है। जिन विकल्पोंको वस्तुदर्शनका पृष्टबल प्राप्त हैं, वे प्रमाण हैं अर्थात् जिनका सम्वन्ध साक्षात् या परम्परासे वस्तुके साथ जुड़ सकता है वे प्राप्य वस्तुको दृष्टिसे प्रमाणकोटिमें आ जाते हैं। जिन्हें दर्शनका पृष्ठवल प्राप्त नहीं है अर्थात् जो केवल विकल्पवासनासे उत्पन्न होते हैं वे अप्रमाण है । अतः यदि दर्शन शब्दको आत्मा आदि पदार्थोंके सामान्यावलोकन अर्थमें लिया जाता है तो मतभेदकी गुञ्जाइश कम है। मतभेद तो उस सामान्यावलोकनकी व्याख्या और निरूपण करनेमें हैं। एक सुन्दरीका शव देखकर भिक्षुको संसारकी असार दशाको भावना होती है तो कामीका मन गुदगुदाने लगता है। कुत्ता उसे अपना भक्ष्य समझ कर
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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