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स्याद्वाद-मीमांसा
५४१ तरह स्वपक्षका भी दूषण ही करना चाहिये। यदि एक हेतुमे पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व तीनो रूप भिन्न-भिन्न माने जाते है; तो क्यों नहीं सपक्षसत्वको ही विपक्षासत्त्व मान लेते ? अतः जिस प्रकार हेतुमे विपक्षासत्त्व सपक्षसत्त्वसे जुदा रूप है उसी तरह प्रत्येक वस्तुमे स्वरूपास्तित्वसे पररूपनास्तित्व जुदा ही स्वरूप है। अन्वयज्ञान और व्यतिरेकज्ञानरूप प्रयोजन और कार्य भी उनके जुदे ही है। यदि रूपस्वलक्षण अपने उत्तररूपस्वलक्षणमे उपादान होता है और रसस्वलक्षणमें निमित्त; तो उसमे ये दोनो धर्म विभिन्न है या नही ? यदि रूपमे एक ही स्वभावसे उपादान और निमित्तत्वको व्यवस्था की जाती है ? तो बताइए एक ही स्वभाव दो रूप हुआ या नही ? उसने दो कार्य किये या नहीं ? तो जिस प्रकार एक ही स्वभाव रूपको दृष्टिसे उपादान है और रसकी दृष्टिसे निमित्त, उसी प्रकार विभिन्न अपेक्षाओसे एक ही वस्तुमे अनेक धर्म माननेमे क्यो विरोधका हल्ला किया जाता है ?
बौद्ध कहते है कि "दृष्ट पदार्थके अखिल गुण दृष्ट हो जाते है, पर भ्रान्तिसे उनका निश्चय नही होता, अतः अमुमानको प्रवृत्ति होती है।" यहाँ प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पसे नीलस्वलक्षणके नीलाशका निश्चय होनेपर क्षणिकत्व और स्वर्गप्रापणशक्ति आदिका निश्चय नही होता, अतः अनु. मान करना पड़ता है; तो एक हो नीलस्वलक्षणमे अपेक्षाभेदसे निश्चितत्व और अनिश्चितत्व ये दो धर्म तो मानना ही चाहिए। पदार्थमे अनेकधर्म या गुण माननेमे विरोधका कोई स्थान नहीं है, वे तो प्रतीत है । वस्तुमें सर्वथा भेद स्वीकार करनेवाले बौद्धोके यहाँ पररूपसे नास्तित्व माने बिना स्वरूपकी प्रतिनियत व्यवस्था ही नहीं बन सकती। दानक्षणका दानत्व प्रतीत होनेपर भी उसकी स्वर्गदानशक्तिका निश्चय नहीं होता। ऐसी
१. "तस्मात् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः ।
भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं संप्रवर्तते ॥"-प्रमाणवा० ३।४४ ।