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________________ ५४२ जैनदर्शन दशामें दानक्षणमें निश्चितता और अनिश्चतता दोनों ही मानना होंगीं। एक रूपस्वलक्षण अनादिकालसे अनन्तकाल तक प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद नहीं होता, वह न तो सजातीय रूपान्तर बनता है और न विजातीय रसादि हो। यह उसकी जो अनाद्यनन्त असंकर स्थिति है, उसका क्या नियामक है ? वस्तु विपरिवर्तमान होकर भी जो समाप्त नहीं होती, इसीका नाम ध्रौव्य है जिसके कारण विवक्षित क्षण क्षणान्तर नहीं होता और न सर्वथा उच्छिन्न ही होता है। अतः जब रूपस्वलक्षण रूपस्वलक्षण ही है, रसादि नहीं, रूपस्वलक्षण प्रतिक्षण परिवर्तित होता हुआ भी सर्वथा उच्छिन्न नहीं होता, रूपस्वलक्षण उपादान भी है और निमित्त भी, रूपस्वलक्षण निश्चित भी है और अनिश्चित भी, रूपस्वलक्षणोंमें सादृश्यमूलक सामान्य धर्म भी है और वह विशेष भी है, रूपस्वलक्षण रूपशब्दका अभिधेय है रसादिका अनभिधेय; तब ऐसी स्थितिमें उसकी अनेकधर्मात्मकता स्वयं सिद्ध है। स्याद्वाद वस्तुकी इसी अनेकान्तात्मकताका प्रतिपादन करनेवाली एक भाषा-पद्धति है, जो वस्तुका सही-सही प्रतिनिधित्व करती है । आप सामान्यको अन्यापोहरूप कह भी लिजिए पर 'अगोव्यावृत्ति गोव्यक्तियोंमें ही क्यों पायी जाती है, अश्वादिमें क्यों नहीं' इसका नियामक गोमें पाया जानेवाला सादृश्य ही हो सकता है । सादृश्य दो पदार्थों में पाया जानेवाला एक धर्म नहीं है, किन्तु प्रत्येकनिष्ठ है । जितने पररूप हैं उनकी व्यावृत्ति यदि वस्तुमें पायी जाती है, तो उतने धर्मभेद माननेमें क्या आपत्ति है ? प्रत्येक वस्तु अपने अखंडरूपमें अविभागी और अनिर्वाच्य होकर भी जब उन-उन धर्मोकी अपेक्षा निर्देश्य होती है तो उसकी अभिधेयता स्पष्ट ही है। वस्तुका अवक्तव्यत्व धर्म स्वयं उसकी अनेकान्तात्मकताको पुकार-पुकारकर कह रहा है । वस्तुमें इतने धर्म, गुण और पर्याय हैं कि उसके पूर्ण स्वरूपको हम शब्दोंसे नहीं कह सकते और इसीलिये उसे
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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