SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४० जैनदर्शन नहीं । शब्दप्रयोगकी दृष्टिसे एक द्रव्यमें विवक्षित धर्मभेद और दो द्रव्योंमें रहने वाला परमार्थसत् भेद, दोनों बिलकुल जुदे प्रकारके है । वस्तुकी समीक्षा करते समय हमें सावधानीसे उसके वर्णित स्वरूपपर विचार करना चाहिये। शान्तरक्षित और स्याद्वाद: आ. शान्तरक्षितने तत्त्वसंग्रहमें स्याद्वादपरीक्षा (पृ० ४८६) नामका एक स्वतन्त्र प्रकरण ही लिखा है । वे सामान्यविशेषात्मक या भावाभावात्मक तत्त्वमें दूषण उद्भावित करते है कि “यदि सामान्य और विशेषरूप एक हो वस्तु है, तो एक वस्तुसे अभिन्न होनेके कारण सामान्य और विशेषमें स्वरूपसांकर्य हो जायगा । यदि सामान्य और विशेष परस्पर भिन्न है और उनसे वस्तु अभिन्न होने जाती है; तो वस्तुमें भेद हो जायगा। विधि और प्रतिषेध परस्पर विरोधी हैं, अतः वे एक वस्तुमें नहीं हो सकते । नरसिंह, मेचकरत्न आदि दृष्टान्त भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि वे सब अनेक अणुओंके समूहरूप है, अतः उनका यह स्वरूप अवयवीकी तरह विकल्प-कल्पित है ।" आदि । बौद्धाचार्योंकी एक ही दलील है कि एक वस्तु दो रूप नहीं हो सकती। वे सोचें कि जब प्रत्येक स्वलक्षण परस्पर भिन्न है, एक दूसरे रूप नहीं हैं, तो इतना तो मानना ही चाहिए कि रूपस्वलक्षण रूपस्वलक्षणत्वेन ‘अस्ति' है और रसादिस्वलक्षणत्वेन 'नास्ति' है, अन्यथा रूप और रस मिलकर एक हो जायगें। हम स्वरूप-अस्तित्वको ही पररूपनास्तित्व नहीं कह सकते; क्योंकि दोनोंको अपेक्षाएँ जुदा-जुदा हैं, प्रत्यय भिन्न-भिन्न है और कार्य भिन्न-भिन्न है। एक ही हेतु स्वपक्षका साधक होता है और परपक्षका दूषक, इन दोनों धर्मोकी स्थिति जुदा-जुदा है । हेतु में यदि केवल साधक स्वरूप ही हो; तो उसे स्वपक्षकी तरह परपक्षको भी सिद्ध ही करना चाहिये। इसी तरह दूषकरूप ही हो; तो परपक्षकी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy