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जैनदर्शन'
यदि कहा जाय कि "जिन परमाणुओंसे दही बना है वे परमा कभी-न-कभी ऊंटके शरीरमें भी रहे होंगे और ऊँटके शरीरके परमा दही भी बने होंगे, और आगे भी दहीके परमाणु ऊँटके शरीररूप | सकने की योग्यता रखते है, इस दृष्टिसे दही और ऊँटका शरीर अभिन्न सकता है ?" सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यको अतीत और अनाग पर्यायें जुदा होती है, व्यवहार तो वर्तमान पर्यायके अनुसार चलता है खानेके उपयोगमे दही पर्याय आती है और सवारीके उपयोगमें ॐ पर्याय । फिर शब्दका वाच्य भी जुदा-जुदा है । दही शब्दका प्रयोग दहं पर्यायवाले द्रव्योंको विषय करता है न कि ऊँटकी पर्यायवाले द्रव्यको प्रतिनियत शब्द प्रतिनियत पर्यायवाले द्रव्यका कथन करते है । यदि अतीत पर्यायकी संभावनासे दही और ऊँटमे एकत्व लाया जाता है त सुगत अपने पूर्वजातक मे भृग हुए थे और वही मृग मरकर सुगत हुआ सुगत पुज्य ही होते
है, अतः सन्तानकी दृष्टि से एकत्व होनेपर भी जैसे है और मृग खाद्य माना जाता है, उसी तरह दही और ऊँटमें खाद्यअखाद्यको व्यवस्था है । आप मृग और सुगतमे खाद्यत्व और बन्द्यत्वका विपर्यास नहीं करते; क्योंकि दोनों अवस्थाएँ जुदा है, और वन्द्यत्व तथा खाद्यत्वका सम्बन्ध अवस्थाओंसे है, उसी तरह प्रत्येक पदार्थकी स्थिति द्रव्यपर्यायात्मक है । पर्यायोंकी क्षणपरम्परा अनादिसे अनन्त काल तक चली जाती है, कभी विच्छिन्न नहीं होती, यही उसकी द्रव्यता ध्रौव्य या free है । नित्यत्व या शाश्वतपनेसे विचकनेकी आवश्यकता नहीं है । सन्तति या परम्पराके अविच्छेदकी दृष्टिसे आंशिक नित्यता तो वस्तुका निज रूप है । उससे इनकार नहीं किया जा सकता। आप जो यह कहते है कि ' विशेषताका निराकरण हो जानेसे सब सर्वात्मक हो जायगें', सो द्रव्यों में एकजातीयता होनेपर स्वरूपकी भिन्नता और विशेषता है ही । पर्यायोंमें परस्पर भेद ही है, अतः दही और ऊंटके अभेदका प्रसंग देना वस्तुका जानते - बूझते विपर्यास करना है । विशेषता तो प्रत्येक द्रव्यमें है