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स्याद्वाद-मीमांसा
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इस प्रसङ्ग में आ० धर्मकीतिने जैनतत्त्वके विपर्यास करनेमें हद कर दी है । तत्त्वको उभयात्मक अर्थात् सत् - असदात्मक, नित्यानित्यात्मक या भेदाभेदात्मक कहनेका तात्पर्य यह है कि दही, दही रूपसे सत् है और दहीसे भिन्न उष्ट्रादिरूपसे वह 'नास्ति' है । जब जैन तत्त्वज्ञान यह स्पष्ट कह रहा है कि 'हर वस्तु स्वरूपसे है, पररूपसे नहीं हैं; तब उससे तो यही फलित हो रहा है कि 'दही दही है, ऊँट आदि रूप नहीं है । ऐसी हालत में दही खानेको कहा गया पुरुष ऊँटको खानेके लिपे क्यों दौड़ेगा ? जब ऊँटका नास्तित्व दही में है, तब उसमें प्रवृत्ति करनेका प्रसंग किसी अनुन्मत्तको कैसे हो सकता है ? दूसरे श्लोकमें जिस विशेषताका निर्देश करके समाधान किया गया है, वह विशेषता तो प्रत्येक पदार्थमें स्वभावभूत मानी ही जाती है । अत: स्वास्तित्व और परनास्तित्वकी इतनी स्पष्ट घोषणा होने पर भी स्वभिन्न परपदार्थ में प्रवृत्तिकी बात कहना ही वस्तुतः अह्रोकता है ।
उभयात्मक अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मक मानकर द्रव्य यानी पुद्गलद्रव्यको दृष्टिसे दही और ऊँटके शरीरको एक मानकर दही खानेके बदले ऊँटके खानेका दूषण देना भी उचित नहीं है; क्योंकि प्रत्येक परमाणु, स्वतन्त्र पुद्गलद्रव्य है, अनेक परमाणु मिलकर स्कन्धरूपमें दही कहलाते हैं और उनसे भिन्न अनेक परमाणु स्कन्धका शरीर बने हैं । अनेक भिन्नासत्ताक परमाणुद्रव्योंमें पुद्गलरूपसे जो एकता है वह सादृश्यमूलक एकता है, वास्तविक एकता नहीं है । वे एकजातीय हैं, एकसत्ताक नहीं । ऐसी दशा में दही और ऊंटके शरीरमें एकताका प्रसंग लाकर मखौल उड़ाना शोभन बात तो नहीं है । जिन परमाणुओंसे दही स्कन्ध बना है उनमें भी विचारकर देखा जाय, तो सादृश्यमूलक ही एकत्वारोप हो रहा है, वस्तुतः एकत्व तो एक द्रव्यमें ही है । ऐसी स्थितिमें दही और ऊँटमें एकत्वका भान किस स्वस्थ पुरुषको हो सकता है ?