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________________ ५३२ जैनदर्शन विरोधी मालूम होते हैं, अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं। पर हमारी दृष्टि विरोध होनेसे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं । धर्मकीर्ति और अनेकान्तवाद : ___ आचार्य धर्मकीर्ति प्रमाणवातिक ( ३।१८०-१८४ ) में उभयरू तत्त्वके स्वरूपमें विपर्यास कर बड़े रोषसे अनेकान्ततत्त्वको प्रलापमा कहते हैं । वे सांख्यमतका खंडन करनेके बाद जैनमतके खंडनका उपक्र करते हुए लिखते हैं "एतनैव यहीकाः किमप्ययुक्तमाकुलम् । प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात् ।।"-प्र०वा ३११८० अर्थात् सांख्यमतके खंडन करनेसे ही अह्रीक यानी दिगम्बर लो जो कुछ अयुक्त और आकुल प्रलाप करते हैं वह खंडित हो जाता है क्योंकि तत्त्व एकान्तरूप ही हो सकता है। ___यदि सभी तत्त्वोंको उभयरूप यानी स्व-पररूप माना जाता है, ते पदार्थों में विशेषताका निराकरण हो जानेसे 'दही खाओ' इस प्रकारको आज्ञा दिया पुरुष ऊँटको खानेके लिये क्यों नहीं दौड़ता ? क्योंकि दही स्व-दहीकी तरह पर-ऊंटरूप भी है । यदि दही और ऊँटमें कोई विशेषता या अतिशय है, जिसके कारण दही शब्दसे दहीमें तथा ऊँट शब्दसे ऊँटमें हो प्रवृत्ति होती है, तो वही विशेषता सर्वत्र मान लेनी चाहिये, ऐसी दशामें तत्त्व उभयात्मक नहीं रहकर अनुभयात्मक योनि प्रतिनियत स्वरूपवाला सिद्ध होगा। १. 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः । चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ॥ अथास्त्यतिशयः कश्चित् तेन भेदेन वर्तते । स एव विशेषोऽन्यत्र नास्तीत्यनुभयं वरम् ॥' -प्रमाणवा० ३३१८१-१८२ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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