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स्याद्वाद-मीमांसा
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और एक द्रव्यको दो पर्यायोंमें भी मौजूद है ही, उससे इनकार नहीं किया जा सकता ।
प्रशाकरगुप्त और अचंट, तथा स्याद्वाद :
प्रज्ञाकर गुप्त धर्म कीर्तिके शिष्य हैं । वे प्रमाणवार्तिकालंकार में जैनदर्शनके उत्पाद, व्यय, धौव्यात्मक परिणामवादमें दूषण देते हुए लिखते हैं कि "जिस समय व्यय होगा, उस समय सत्त्व कैसे ? यदि सत्त्व है; तो व्यय कैसे ? अतः नित्यानित्यामक वस्तुकी सम्भावना नहीं है । या तो वह एकान्तसे नित्य हो सकती है या एकान्तसे अनित्य ।"
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हेतुबिन्दुके टीकाकार अर्चंट भी वस्तुके उत्पाद, व्यय, धोव्यात्मक लक्षण में ही विरोध दूषणका उद्भावन करते हैं । वे कहते हैं कि "जिस रूपसे उत्पाद और व्यय हैं उस रूपसे धौव्य नहीं है, और जिस रूपसे धन्य है उस रूपसे उत्पाद और व्यय नहीं हैं । एक धर्मी में परस्पर विरोधी दो धर्म नहीं हो सकते ।"
किन्तु जब बौद्ध स्वयं इतना स्वीकार करते हैं कि वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होती है और नष्ट होती है तथा उसकी इस धाराका कभी विच्छेद
१. “ अथोत्पादव्ययधौव्ययुक्तं यत्तत्सदिष्यते ।
एषामेव न सत्त्वं स्यात् एतद्भावावियोगतः ॥ यदा व्ययस्तदा सत्त्वं कथं तस्य प्रतीयते ? पूर्व प्रतीते सत्त्वं स्यात् तदा तस्य व्ययः कथम् ॥ धौव्येऽपि यदि नास्मिन् धीः कथं सत्त्वं प्रतीयते I प्रतीतेरेव सर्वस्य तस्मात् सत्त्वं कुतोऽन्यथा ॥ तस्मान्न नित्यानित्यस्य वस्तुनः संभवः क्वचित् । अनित्यं नित्यमथवास्तु एकान्तेन युक्तिमत् ॥”
- प्रमाणवार्तिकाल. पृ० १४२ । २. “ धौव्येण उत्पादव्यययोविरोधात, एकस्मिन् धर्मिण्ययोगात् । "
- हेतुबि० टी० पृ० १४६