________________
५२३
स्याद्वाद-मीमांसा क्यों कहता है ?' तो हम उस बेटेको हो पागल कहेंगे, बापको नहीं । अतः जब ये परस्परविरोधी अनन्तधर्म वस्तुके विरापमें समाये हुए है, उसके अस्तित्वके आधार है, तब विरोध कैसा?
सात तत्त्वका जो स्वरूप है, उस स्वरूपसे ही तो उनका अस्तित्व है, भिन्न स्वरूपसे तो उनका नास्तित्व ही है । यदि जिस रूपसे अस्तित्व कहा जाता है उसी रूपसे नास्तित्व कहा जाता, तो विरोध या असंगति होती। स्त्री जिसकी पत्नी है, यदि उसीकी माता कही जाय, तो हो लड़ाई हो सकती है। ब्रह्मका जो स्वरूप नित्य, एक और व्यापक बताया जाता है उसी रूपसे तो ब्रह्मका अस्तित्व माना जा सकता है, अनित्य, अव्यापक
और अनेकके रूपमे तो नहीं। हम पूछते हैं कि जिसप्रकार ब्रह्म नित्यादिरूपसे अस्ति है, क्या उसी तरह अनित्यादिरूपसे भी उसका अस्तित्व है क्या ? यदि हाँ, तो आप स्वयं देखिये, ब्रह्मका स्वरूप किसी अनुन्मत्तके समझने लायक रह जाता है क्या ? यदि नहीं; तो ब्रह्म जिमप्रकार नित्यादिरूपसे 'मत्' और अनित्यादिरूपसे 'अमत्' है, और इस तरह अनेकधर्मात्मक सिद्ध होता है उसी तरह जगतके समस्त पदार्थ इस त्रिकालाबाधित स्वरूपमे व्याप्त है।
प्रमाता और प्रमिति आदिके जो स्वरूप है, उनकी दृष्टिसे ही तो उनका अस्तित्व होगा, अन्य स्वरूपोंसे कैसे हो मकता है ? अन्यथा स्वरूपसांकर्य होनेसे जगतकी व्यवस्थाका लोप ही प्राप्त होता है।
पंचास्तिकायकी पांच संख्या है, चार या तीन नहीं', इसमें क्या विरोध है ? यदि यह कहा जाता कि 'पंचास्तिकाय पाँच है और पांच नहीं है' तो विरोध होता, पर अपेक्षाभेदसे तो पंचास्तिकाय पाँच हैं, चार आदि नहीं है । फिर पांचों अस्तिकाय अस्तिकायत्वेन एक होकर भी तत्तद्व्यक्तियोंकी दृष्टि से पांच भी हैं। सामान्यसे एक भी है और विशेष रूपसे पांच भी है, इसमें क्या विरोध है ?
स्वर्ग और मोक्ष अपने स्वरूपकी दृष्टि से 'है', नरकादिकी दृष्टिसे