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________________ ५२२ जैनदर्शन तात्पर्य यह कि एक वस्तुमें परस्पर विरोधी दो धर्मोका होना सम्भव ही नहीं है । अतः आर्हतमतका 'स्याद्वाद' सिद्धान्त असंगत है।' हम पहले लिख आये है कि 'स्यात्' शब्द जिस धर्मके साथ लगता है उसको स्थिति कमजोर नहीं करके वस्तुमें रहनेवाले तत्प्रतिपक्षी धर्मकी सूचना देता है । वस्तु अनेकान्तरूप है, यह समझानेकी बात नहीं है । उसमें साधारण, असाधारण और साधारणासाधारण आदि अनेक धर्म पाये जाते हैं । एक ही पदार्थ अपेक्षाभेदसे परस्परविरोधी अनेक धर्मोंका आधार होता है । एक ही देवदत्त अपेक्षाभेदसे पिता भी है, पुत्र भी है, गुरु भी है शिष्य भी है, शासक भी है शास्य भी है, ज्येष्ठ भी है, कनिष्ठ भी है, दून भी है, और पास भी है। इस तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि विभिन अपेक्षाओंसे उममें अनन्त धर्म सम्भव है। केवल यह कह देनेसे कि 'जं पिता है वह पुत्र कैसा ? जो गुरु है वह शिष्य कैसा ? जो ज्येष्ट है व कनिष्ठ कैसा? जो दूर है वह पाम कैसा, प्रतीतिसिद्ध स्वरूपका अपला नहीं किया जा सकता। एक ही मेचकरत्न अपने अनेक रंगोंकी अपेक्ष अनेक है। चित्रज्ञान एक होकर भी अनेक आकारवाला प्रसिद्ध ही है एक ही स्त्री अपेक्षाभेदसे माता भी है और पत्नी भी। एक ही पृथिवं त्वसामान्य पृथिवीव्यक्तियोंमे अनुगत होनेके कारण मामान्य होकर । जलादिसे व्यावृत्ति कराता है। अतः विशेष भी है। इसीलिये इस सामान्यविशेष या अपरसामान्य कहते है। स्वयं संशयज्ञान एक होकर ' 'संशय और निश्चय' इन दो आकारोंको धारण करता है । 'संशय परस विरोधो दो आकारोंवाला है। यह बात तो सुनिश्चित है, इसमें तो सन्देह नहीं है । एक ही नरसिंह एक भागसे नर होकर भी द्वितीय भाग अपेक्षा सिंह है। एक ही धूपदहनी अग्निसे संयुक्त भागमें उष्ण हो भो पकड़नेवाले भागमे ठंडी है । हमारा समस्त जीवन-व्यवहार ही सा धर्मोसे चलता है। कोई पिता अपने बेटेसे 'बेटा' कहे और वह बेटा, अपने लड़केका बाप है, अपने पितासे इसलिये झगड़ पड़े कि 'वह उसे :
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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