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जैनदर्शन 'नही'; इसमे क्या आपत्ति है ? 'स्वर्ग स्वर्ग है, नरक तो नही है', यह तो आप भी मानेंगे । 'मोक्ष मोक्ष ही तो होगा, संसार तो नहीं होगा।' ____ अवक्तव्य भी एक धर्म है, जो वस्तुके पूर्णरूपकी अपेक्षासे है । कोई ऐमा शब्द नही, जो वस्तु के अनेकधर्मात्मक अखंड रूपका वर्णन कर सके । अत. वह अवक्तव्य होकर भी तत्तद्धर्मोकी अपेक्षा वक्तव्य है और उस अवक्तव्य धर्मको भी इसीलिये 'अवक्तव्य' शब्दसे कहते भी है । 'स्यात्' पद इसीलिये प्रत्येक वाक्यके साथ लगकर वक्ता और श्रोता दोनोकी वस्तुके विगट स्वरूप और विवक्षा या अपेक्षाकी याद दिलाता रहता है, जिससे लोग मरमरी तौर पर वस्तु के स्वरूपके माथ विलबाड न करे । 'प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपमे है, अपने क्षेत्रमे है, अपने कालसे है और अपनी गणपर्यायोमे है, भिन्न रूपोमे नही है' यह एक मीधो-माधी बात है, जिसे आबाल-गोपाल मभी सहज ही समझ मकते है। यदि एक ही अपेक्षामे दो विरोधी धर्म बताये जाते, तो विरोध हो सकता था। एक ही देवदत्त जब जवानीमे अपने बाल-चरितोका स्मरण करता है तो मनमे लज्जित होता है, पर वर्तमान सदाचारसे प्रसन्न होता है । यदि देवदत्तको बालपन और जवानी दो अवस्थाएं नही हुई होती और दोनो अवस्थाप्रोमे देवदत्तका अन्वय न होता, तो उसे बचपनका स्मरण कैसे आता ? और क्यो वह उस बालचरितको अपना मानकर लज्जित होता? इससे देवदत्त आत्मत्वेन एक और नित्य होकर भी अपनी अवस्थाओकी दृष्टिसे अनेक और अनित्य भी है । यह सब रस्मीमे मॉपकी तरह केवल प्रातिभामिक नही है, किन्तु परमार्थमत् है, ठोम मत्य है । जब वस्तुका म्वरूपमे 'अस्ति' रूप भी निश्चित है, और परम् पसे 'नास्ति' रूप भी निश्चित है तब संशय कैसे हो सकता है ? सशय तो, दोनो कोटियोके अनिश्चयकी दशामे ज्ञान जब दोनो ओर झ लता है, तब होता है। अत. न तो अनेकान्नस्वरूपमे विरोध ही हो सकता है और न मंशय ही।
श्वे० उपनिषद्के "अणोरणीयान महतो महीयान्" (३।२०)