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________________ ५१० जैनदर्शन कि नयवाक्यमें जब 'स्यात्' पदके द्वारा शेष धर्मोका संग्रह हो जाता है तो वह समस्त वस्तुका ग्राहक होनेसे प्रमाण ही हो जायगा, नय नहीं रह सकता, क्योंकि नय तो एक धर्मका ग्राहक होता है। इनके मतसे सभी नय एकान्तग्राहक होनेसे मिथ्यारूप है। किन्तु उनके इस मतको उ० यशोविजयजीने गुरुतत्वविनिश्चय (पृ० १७ बी० ) में आलोचना की है। वे लिखते है कि “नयान्तरसापेक्ष नयका प्रमाणमे अन्तर्भाव करने पर व्यवहारनयको प्रमाण मानना होगा, क्योकि वह निश्चयकी अपेक्षा रखता है। इसी तरह चारो निक्षेपोको विषय करनेवाले शब्दनय भी भावविषयक शब्दनयसापेक्ष होनेसे प्रमाण हो जायगे । वास्तविक बात तो यह है कि नयवाक्यमे 'स्यात्' पद प्रतिपक्षी नयके विषयकी सापेक्षता ही उपस्थित करता है, न कि अन्य अनन्त धर्मोका परामर्श करता है। यदि ऐसा न हो तो अनेकान्तमे सम्यगेकान्तका अन्तर्भाव ही नहीं हो सकेगा। सम्यगेकान्त अर्थात् प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षा रखनेवाला एकान्त । इसलिए 'स्यात्' इस अव्ययको अनेकान्तका द्योतक माना है न कि अनन्तधर्मका परामर्श करनेवाला । अतः प्रमाणवाक्यमे 'स्यात्' पद अनन्त धर्मका परामर्श करता है और नयवाक्यमे प्रतिपक्षी धर्मकी अपेक्षाका द्योतन करता है ।" प्रमाणमे तत् और अतत् दोनों गृहीत होते है और 'स्यात्' पदसे उस अनेकान्त अर्थका द्योतन होता है। नयमे एक धर्मका मुख्यभावसे ग्रहण होकर भी शेष धर्मोका निराकरण नहीं किया जाता। उनका सद्भाव गौणरूपसे स्वीकृत रहता है जब कि दुर्नयमे अन्य धर्मोका निराकरण कर दिया जाता है। नयवाक्यमे 'स्यात्' पद प्रतिपक्षी शेष धर्मोके अस्तित्वकी रक्षा करता है । दुर्नयमे अपने धर्मका अवधारण होकर अन्यका निराकरण ही हो जाता है । अनेकान्तमे जो सम्यगेकान्त समाता है वह धर्मान्तरसापेक्ष धर्मका ग्राहक ही तो होता है ! यह मै बता चुका हूँ कि आजसे तीन हजार वर्ष पूर्व तथा इससे भी पहले भारतके मनीषी विश्व और तदन्तर्गत प्रत्येक पदार्थके स्वरूपका
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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