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सप्तभंगी
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आदिने 'सत्, असत् और अवक्तव्य' इन तीन भंगोंको सकलादेशी तथा शेष चार भंगोंको विकलादेशी माना है । इनका तात्पर्य यह है कि प्रथम भंगमे द्रव्यार्थिक दृष्टि से 'सत्' रूपसे अभेद मानकर संपूर्ण द्रव्यका ग्रहण हो जाता है। द्वितोय भंगमे पर्यायाथिक दृष्टि से समस्त पर्यायोंमे अभेदोपचार करके समस्त द्रव्यको ग्रहण कर सकते है । और तृतीय अवक्तव्य भंगमे तो सामान्तया अविवक्षित भेदवाले द्रव्यका ग्रहण होता है। अतः इन तीनोंको सकलादेशी कहना चाहिये । परन्तु चतुर्थ आदि भंगोमे तो दो-दो अंशवाली तथा सातवें भंगमे तोन अंशवाली वस्तुके ग्रहण करते समय दृष्टिके सामने अंशकल्पना बराबर रहती है, अतः इन्हे विकलादेशी कहना चाहिये । यद्यपि 'स्यात्' पद होनेसे शेष धर्मोका संग्रह इनमे भी हो जाता है; पर धर्मभेद होनेसे अखंड धर्मी अभिन्नभावसे गृहीत नही हो पाता, इसलिये ये विकलादेश है। उ० यशोविजयजीने जैनतर्क-भाषा और गुरुतत्त्वविनिश्चय आदि अपने ग्रन्थोंमे इस परम्पराका अनुसरण न करके सातों ही भंगोंको सकलादेशी और विकलादेशी दोनों रूप माना है। पर अष्टसहस्रीविवरण (पृ० २०८ बी० ) मे वे तीन भंगोंको सकलादेशी और शेषको विकलादेशी माननेका पक्ष भी स्वीकार करते है। वे लिखते है कि देश भेदके बिना क्रमसे सत्, असत्, उभयको विवक्षा हो नहीं सकती, अतः निरवयव द्रव्यको विषय करना संभव नहीं है, इसलिये चारों भंगोंको विकलादेशी मानना चाहिये । यह मतभेद कोई महत्त्वका नहीं है; कारण जिस प्रकार हम सत्त्वमुखेन समस्त वस्तुका संग्रह कर सकते है, उसी तरह सत्त्व और असत्त्व दो धर्मोके द्वारा भी अखंड वस्तुका स्पर्श करनेमे कोई बाधा प्रतीत नहीं होती। यह तो विवक्षाभेद और दृष्टिभेदकी बात है।
मलयगिरि आचार्यके मतकी मीमांसा :
आचार्य मलयगिरि ( आव० नि० मलय० टी० पृ० ३७१ ए ) प्रमाणवाक्यमें ही 'स्यात्' शब्दका प्रयोग मानते है। उनका अभिप्राय है