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जैनदर्शन जाते हैं । जब द्रव्याथिकनयको विवक्षा होती है तब समस्त गुणोंमें अभेदवृत्ति तो स्वतः हो जाती हैं, परन्तु पर्यायाथिकनयकी विवक्षा होने पर गुण और धर्मों में काल आदिको दृष्टिसे अभेदोपचार करके समस्त वस्तुका ग्रहण कर लिया जाता है। काल, आत्मरूप, अर्थ, सम्बन्ध, उपकार, गुणिदेश, संसर्ग और शब्द इन आठ दृष्टियोंसे गुणादिमें अभेदका उपचार किया जाता है। जो काल एक गुणका है वही अन्य अशेष गुणोंका है, अतः कालकी दृष्टिसे उनमें अभेदका उपचार हो जाता है । जो एक गुणका 'तद्गुणत्व' स्वरूप है वही शेष समस्त गुणोंका है। जो आधारभूत अर्थ एक गुणका है वही शेष सभी गुणोंका है । जो कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध एक गुणका है वही शेष गुणोंका भी है । जो उपकार अपने अनुकूल विशिष्टबुद्धि उत्पन्न करना एक गुणका है वही उपकार अन्य शेष गुणोंका है । जो गुणिदेश एक गुणका है वही अन्य शेष गुणोंका है। जो संसर्ग एक गुणका है वही शेष धर्मोका भी है। जो शब्द 'उस द्रव्यका गुण' एक गुणके लिये प्रयुक्त होता है वही शेष धर्मोके लिये प्रयुक्त होता है। तात्पर्य यह कि पर्यायाथिकको विवक्षामें परस्पर भिन्न गुण और पर्यायोंमें अभेदका उपचार करके अखंडभावसे समग्र द्रव्य गृहीत हो जाता है। विकलादेशमें द्रव्याथिंकनयकी विवक्षा होने पर भेदका उपचार करके एक धर्मका मुख्यभावसे ग्रहण होता है । पर्यायाथिकनयमें तो भेदवृत्ति स्वतः है हो । भंगोंमें सकलविकलादेशता :
यह सप्तभंगी सकलादेशके रूपमें प्रमाणसप्तभंगी कही जाती है और विकलादेशके रूपमें नयसप्तभंगी नाम पाती है। नयसप्तभंगो अर्थात् विकलादेशमें मुख्य रूपसे विवक्षित धर्म गृहीत होता है; शेषका निराकरण तो नहीं ही होता पर ग्रहण भी नहीं होता, जब कि सकलादेशमें विवक्षितधर्मके द्वारा शेष धर्मोका भी ग्रहण होता है ।
आ० सिद्धसेनगणि, अभयदेव सूरि ( सन्मति० टी० पृ० ४४६ )