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सप्तभंगी
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अकलंकदेवने तत्त्वार्थवार्तिक ( ४४२ ) में दोनोंका 'स्यादस्त्येव जीवः' यही उदाहरण दिया है। उसकी सकलविकलादेशता समझाते हुए उन्होंने लिखा है कि जहाँ अस्ति शब्दके द्वारा सारी वस्तु समग्रभावसे पकड़ ली जाय वह सकलादेश है और जहाँ अस्तिके द्वारा अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे तथा शेष धर्मोका गौणरूपसे भान हो वह विकलादेश है । यद्यपि दोनों वाक्योंमे समग्र वस्तु गृहीत होती है पर सकलादेशमें समग्र धर्म यानी पूरा धर्मी एकभावसे गृहीत होता है जब कि विकलादेशमें एक ही धर्म मुख्यरूपसे गृहीत होता है। यहाँ यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि 'जब सकलादेशका प्रत्येक भंग समग्र वस्तुका ग्रहण करता है तब सकलादेशके सातों भंगोंमे परस्पर क्या भेद हुआ ?' इसका समाधान यह है कि-यद्यपि सभी धर्मोमे पूरी वस्तु गृहीत होती है सही, पर स्यादस्ति भंगमें वह अस्तित्व धर्मके द्वारा गृहीत होती है और नास्तित्व आदि भंगोंमें नास्तित्व आदि धर्मोके द्वारा। उनमें मुख्य-गौणभाव भी इतना ही है कि जहाँ अस्ति शब्दका प्रयोग है वहाँ मात्र 'अस्ति' इस शाब्दिक प्रयोगको ही मुख्यता है, धर्मकी नहीं। शेष धर्मोकी गौणता भी इतनी ही है कि उनका उस समय शाब्दिक प्रयोग द्वारा कथन नहीं हुआ है। कालादिको दृष्टिसे भेदाभेद कथन :
प्रथम भंगमें द्रव्याथिकके प्रधान होनेसे 'अस्ति' शब्दका प्रयोग हैं और उसी रूपसे समस्त वस्तुका ग्रहण है। द्वितीय भंगमें पर्यायाथिकके प्रधान होनेसे 'नास्ति' शब्दका प्रयोग है और उसी रूपसे पूरी वस्तुका ग्रहण किया जाता है। जैसे-किसी चौकोर कागजको हम क्रमशः चारों छोरोंको पकड़कर उठावें तो हर वार उठेगा तो पूरा कागज, पर उठानेका ढंग बदलता जायगा, वैसे ही सकलादेशके भंगोंमें प्रत्येकके द्वारा ग्रहण तो पूरी ही वस्तुका होता है; पर उन भंगोंका क्रम बदलता जाता है । विकलादेशमें वही धर्म मुख्यरूपसे गृहीत होता है और शेष धर्म गौण हो