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जैनदर्शन "उपयोगौ श्रुतस्य द्वौ स्याद्वाद-नयसंज्ञितौ।
स्याद्वादः सकलादेशो नयो विकलसंकथा ॥३२॥" अर्थात् श्रुतज्ञानके दो उपयोग है-एक स्याद्वाद और दूसरा नय । स्याद्वाद सकलादेशरूप होता है और नय विकलादेश । सकलादेशको प्रमाण तथा विकलादेशको नय कहते हैं। ये सातों ही भंग जब सकलादेशी होते हैं तब प्रमाण और जब विकलादेशी होते हैं तब नय कहे जाते हैं। इसतरह सप्तभंगी भी प्रमाणसप्तभंगी और नयसप्तभंगीके रूपमें विभाजित हो जाती है। एक धर्मके द्वारा समस्त वस्तुको अखंडरूपसे ग्रहण करनेवाला सकलादेश है तथा उसी धर्मको प्रधान तथा शेष धर्मोको गौण करनेवाला विकलादेश है । स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थको ग्रहण करता है। जैसे-'जीव' कहनेसे ज्ञान, दर्शन आदि असाधारण गुणवाले सत्त्व, प्रमेयत्वादि साधारण स्वभाववाले तथा अमूर्तत्व, असंख्यातप्रदेशित्व आदि साधारणासाधारणधर्मशाली जीवका समग्रभावसे ग्रहण हो जाता है। इसमें सभी धर्म एकरूपसे गृहीत होते हैं, अतः गौणमुख्यव्यवस्था अन्तर्लीन हो जाती है'
विकलादेशी नय एक धर्मका मुख्यरूपसे कथन करता है। जैसे'ज्ञो जीवः' कहनेसे जीवके ज्ञानगुणका मुख्यतया बोध होता है, शेष धर्मोका गौणरूपसे उसीके गर्भ में प्रतिभास होता है । विकल अर्थात् एक धर्मका मुख्यरूपसे ज्ञान करानेके कारण ही यह वाक्य विकलादेश या नय कहा जाता है । विकलादेशी वाक्यमें भी 'स्यात्' पदका प्रयोग होता है जो शेष धर्मोकी गौणता अर्थात् उनका अस्तित्वमात्र सूचित करता है । इसीलिए 'स्यात्' पदलांछित नय सम्यक्नय कहलाता है। सकलादेशमें धर्मीवाचक शब्दके साथ एवकार लगता है । यथा-'स्याज्जीव एव' । अत एव यह धर्मीका अखंडभावसे बोध कराता है, विकलादेशमें 'स्यादस्त्येव जीवः' इस तरह धर्मवाचक शब्दके साथ एवकार लगता है जो अस्तित्व धर्मका मुख्यरूपसे ज्ञान कराता है।