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सप्तमंगी
'सत्, असत्, उभय और अनुभय, एक अनेक उभय और अनुभय' आदि चार कोटियोंमें विभाजित कर वर्णन करते थे। जिज्ञासु भी अपने प्रश्नको इन्हीं चार कोटियोमें पूछता था। म० बुद्धसे जब तत्त्वके सम्बन्धमें विशेषतः आत्माके सम्बन्धमें प्रश्न किये गये, तो उनने उसे अव्याकृत कहा। संजय इन प्रश्नोंके सम्बन्धमें अपना अज्ञान ही प्रकट करता था। किन्तु भ० महावीरने अपने सप्तभंगी-यायसे इन चार कोटियोंका ही वैज्ञानिक समाधान नहीं किया, अपितु अधिक-से-अधिक संभवित सात कोटियों तकका उत्तर दिया । ये उत्तर ही सप्तभंगी या स्याद्वाद हैं । संजयके विक्षेपवादसे स्याद्वाद नहीं निकला' :
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन तथा इतः पूर्व डॉ० हर्बन जैकोबी आदिने स्याद्वाद या सप्तभंगकी उत्पत्तिको संजयवेलठिपुत्तके मतसे वतानेका प्रयत्न किया है। राहुलजीने दर्शनदिग्दर्शनमें लिखा है कि"आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्याद्वाद है । जो मालूम होता है संजयवेलट्टिपुत्तके चार अंगवाले अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक, देवता ) के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इनकार करते हुए उस इनकारको चार प्रकार कहा है
१ है ?' नहीं कह सकता। २ 'नहीं है ?' नहीं कह सकता। ३ 'हे भी और नहीं भी ?' नहीं कह सकता। ४ 'न है और न नहीं है ?' नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके स्याद्वाद से
१ 'है ?' हो सकता है ( स्यादस्ति ), २ 'नहीं है ?' नहीं भी हो सकता है ( स्यान्नास्ति ), ३ 'है भी और नहीं भी ?' है भी और नहीं भी हो सकता ( स्यादस्ति च नास्ति च )। १. देखो, न्यायाविनिश्चय विवरण प्रथमभागको प्रस्तावना ।