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जैनदर्शन
सदा होता रहता है । कभी भी यह परिणमनचक्र रुकता नहीं है और न कभी कोई भी द्रव्य समाप्त ही हो सकता है। अतः प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्यात्मक है। ___यद्यपि हम स्वयं अपनी बाल, युवा, वृद्ध आदि अवस्थाओंमें बदल रहे हैं, फिर भी हमारा एक ऐसा अस्तित्व तो है ही, जो इन सब परिवर्तनोंमें हमारी एकरूपता रखता है। वस्तुस्थिति जब इसतरह परिणामो-नित्यकी है, तब यह शंका कि 'जो नित्य है वह अनित्य कैसा ?' निर्मूल है; क्योंकि परिवर्तनोंके आधारभूत पदार्थको सन्तानपरम्परा उसके अनाद्यनन्त सत्त्वके बिना बन ही नहीं सकती। यही उसकी नित्यता है जो अनन्त परिवर्तनोंके बावजूद भी वह समाप्त नहीं होता और अपने अतीतके संस्कारोंको लेता-छोड़ता वर्तमान तक आता है और अपने भविष्यके एक-एक क्षणको वर्तमान बनाता हुआ उन्हें अतीतके गह्वरमें ढकेलता जाता है, पर कभी स्वयं रुकता नहीं है। किसी ऐसे कालकी कल्पना नहीं की जा सकती, जो स्वयं अंतिम हो, जिसके बाद दूसरा काल नहीं आनेवाला हो। कालकी तरह समस्त जगतके अणु-परमाणु और चेतन आदिमेंसे कोई एक या सभी कभी निर्मूल समाप्त हो जायगे, ऐसो कल्पना ही नहीं होती। यह कोई बुद्धिको सीमाके परेकी बात नहीं है। बुद्धि 'अमुक क्षणमें अमुक पदार्थकी अमुक अवस्था होगी' इस प्रकार परिवर्तनका विशेषरूप न भी जान सके, पर इतना तो उसे स्पष्ट भान होता है कि 'पदार्थका भविष्यके प्रत्येक क्षणमें कोई-न-कोई परिवर्तन अवश्य होगा।' जब द्रव्य अपनेमें मौलिक है, तब उसकी समाप्ति, यानी समूल नाशका प्रश्न ही नहीं है। अतः पदार्थमात्र, चाहे वह चेतन हो, या अचेतन, परिणामीनित्य है । वह प्रतिक्षण त्रिलक्षण है । हर समय कोई एक पर्याय उसकी होगी ही। वह अतीत पर्यायका नाश कर जिस प्रकार स्वयं अस्तित्वमें आई है उसी तरह उत्तर पर्यायको उत्पन्न कर स्वयं नष्ट हो जायगी। अतीतका व्यय वर्तमानका उत्पाद और दोनोंमें द्रव्यरूपसे ध्रुवता है ही।