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स्याद्वाद
होती हैं और द्रव्य अनादि अनन्त होता है। इस तरह एक होकर भी द्रव्यकी अनेकरूपता जब प्रतीतिसिद्ध है तब उसमें विरोध, संशय आदि दूषणोंका कोई अवकाश नहीं हैं। नित्यानित्यात्मक तत्त्व ___ यदि द्रव्यको सर्वथा नित्य माना जाता है तो उसमें किसी भी प्रकारके परिणमनकी संभावना नहीं होनेसे कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी और अर्थक्रियाशून्य होनेसे पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष, लेन-देन आदिकी समस्त व्यवस्थाएँ नष्ट हो जायँगी। यदि पदार्थ एक जैसा कूटस्थ नित्य रहता है तो जगके प्रतिक्षणके परिवर्तन असंभव हो जायेंगे । और यदि पदार्थको सर्वथा विनाशी माना जाता है तो पूर्वपर्यायका उत्तरपर्यायके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होनेके कारण लेनदेन, बन्ध-मोक्ष, स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि व्यवहार उच्छिन्न हो जायेंगे। जो करता है उसके भोगनेका क्रम ही नहीं रहेगा। नित्य पक्ष में कर्तृत्व नहीं बनता, तो अनित्य पक्षमें करनेवाला एक और भोगनेवाला दूसरा होता है। उपादान-उपादेयभावमूलक कार्यकारणभाव भी इस पक्ष में नहीं बन सकता। अतः समस्त लोक-परलोक तथा कार्यकारणभाव आदिको सुव्यवस्थाके लिये पदार्थोंमें परिवर्तनके साथ-ही-साथ उसकी मौलिकता और अनादिअनन्तरूप द्रव्यत्वका आधारभूत ध्रु वत्व भी स्वीकार करना ही चाहिये ।
इसके माने बिना द्रव्यका मौलिकत्व सुरक्षित नहीं रह सकता। अतः प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादि अनन्त धारामें प्रतिक्षण सदृश, विसदृश, अल्पसदृश, अर्धसदृश आदि अनेकरूप परिणमन करता हुआ भी कभी समाप्त नहीं होता, उसका समूल उच्छेद या विनाश नहीं होता । आत्माको मोक्ष हो जाने पर भी उसकी समाप्ति नहीं होती, किन्तु वह अपने शुद्धतम स्वरूपमें स्थिर हो जाता है। उस समय उसमें वैभाविक परिणमन नहीं होकर द्रव्यगत उत्पाद-व्यय स्वरूपके कारण स्वभावभूत सदृश परिणमन